आदि शंकराचार्य |आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय| आदि शंकराचार्य पुस्तकें |आदि शंकराचार्य के गुरु कौन थे |आदि शंकराचार्य जयंती|आदि शंकराचार्य का जन्म कहां हुआ था |आदि शंकराचार्य का जीवन कितना रहा | आदि शंकराचार्य तस्वीरें | आदि शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई |
धर्म तथा दर्शन के सम्बन्ध में समस्त भारत में अव्यवस्था व्याप्त थी। चार्वाक, लोकायत, कापालिक, शाक्त, सांख्य, बौद्ध तथा माध्यमिक-जैसे कई एक सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव तथा बहत्तर धर्मों का अभ्युदय हो चुका था जो परस्पर संघर्षरत थे। शान्ति-जैसी कोई वस्तु नहीं रह गयी थी और सब कुछ अस्त-व्यस्त हो चला था । लोग अन्धविश्वास से ग्रस्त थे। ऋषियों, सन्तों तथा योगियों की जो धरती कभी सुख-समृद्धि से पूर्ण थी, उसमें अब अन्धकार व्याप्त हो गया था। आर्यों की महिमामयी भूमि की अवस्था दयनीय हो गयी थी। शंकराचार्य के अवतार ग्रहण के पूर्व देश की यही दशा थी ।

यदि भारत में वैदिक धर्म आज भी जीवित है, तो इसका श्रेय आदि शंकराचार्य को ही है। वैदिक धर्म की विरोधी शक्तियाँ आज से भी अधिक बहुसंख्यक तथा बलवती थीं; किन्तु आदि शंकराचार्य ने अल्पावधि में ही उन्हें अकेले ही पराभूत कर वैदिक धर्म एवं अद्वैत वेदान्त को उनकी पूर्व महिमा में पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। अपने इस अभियान में उन्होंने केवल विशुद्ध ज्ञान तथा आध्यात्मिकता के आयुध का ही उपयोग किया था। राम तथा कृष्ण-जैसे शंकर-पूर्व अवतारों को धर्म-विरोधी शक्तियों की पराजय के लिए शारीरिक शक्ति का प्रयोग इसलिए करना पड़ा था कि उन दिनों इन आसुरी शक्तियों का अभ्युदय दैहिक अवरोध तथा उत्पीड़न के माध्यम से ही हुआ था। कलियुग में धर्म के समक्ष को संकट उपस्थित हो गया था, उसका प्रारूप बाह्य से अधिक आन्तरिक तथा शारीरिक से अधिक मानसिक था। उस समय प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के मन में अधर्म के बीज अंकुरित हो रहे थे। अतः अशुभ के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एकमात्र ज्ञान तथा आत्मशुद्धि के शस्त्र की ही आवश्यकता थी। इस शस्त्र को तीक्ष्णता तथा क्षमता प्रदान करने के लिए आदि शंकराचार्य ने ब्राह्मण परिवार में जन्म ग्रहण कर जीवन के पूर्वाह्न में ही संन्यास ग्रहण कर लिया। राम तथा कृष्ण-जैसे पूर्वकालिक अवतारों ने क्षत्रिय-वर्ण में जन्म लिया था। इसका कारण यह था कि उनके युग में धर्म के पुनरुद्वार के लिए सैन्य बल की आवश्यकता थी ।
भारतीय दर्शन में शंकराचार्य को जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है, उससे निस्सन्देह सभी लोग परिचित हैं। बिना किसी प्रतिवाद के इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है कि यदि आदि शंकराचार्य का जीवन-यापन उनके आदर्शों के अनुरूप नहीं हुआ होता और यदि उन्होंने अपने उपदेशामृत से इस देश को कृतकृत्य नहीं किया होता, तो अनेक शताब्दी पूर्व भारतवर्ष अपने यथार्थ स्वरूप से वंचित हो चुका होता तथा यहाँ उत्तरोत्तर आने वाले आक्रमणकारियों के कृपाणों, उनकी विध्वंसात्मक गतिविधियों एवं धार्मिक असहिष्णुता के विरुद्ध संघर्ष में वह नितान्त असमर्थ सिद्ध हो जाता। उनके वे उपदेश आज भी प्रत्येक निष्कपट जिज्ञासु तथा प्रत्येक सच्चे हिन्दू की रक्त-शिराओं को स्पन्दित कर रहे हैं ।
जन्म
आदि शंकराचार्य का जन्म सन् ७८८ ई० में आलवाइ से छह मील पूर्व कालडि नामक ग्राम के एक निर्धन परिवार में हुआ था। कालडि कोची-शोरानूर रेल मार्ग पर अंगमालि रेलवे स्टेशन के निकट है। आदि शंकराचार्य नम्बूदरी ब्राह्मण थे। राजशेखर नामक एक भूस्वामी ने कालडि में एक शिव मन्दिर की स्थापना कर उसमें कार्यरत ब्राह्मणों के लिए एक अग्रहार का निर्माण कर दिया था। विद्याधिराज उस मन्दिर में पूजा किया करते थे। उनके शिवगुरु नामक एक पुत्र था जिसने शास्त्राध्ययन के पश्चात् उपयुक्त आयु में विवाह किया था। शिवगुरु निस्सन्तान थे। उन्होंने अपनी पत्नी आर्यम्बा के साथ सन्तान के लिए भगवान् शिव से प्रार्थना की। वसन्त ऋतु के आर्द्रा नक्षत्र के मांगलिक अभिजित् मुहूर्त में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यह पुत्र शंकर थे।

जब शंकर सात वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहान्त हो गया। इस स्थिति में शंकर के पठन-पाठन की देख-भाल करने वाला कोई नहीं रहा। उनकी माता एक असाधारण गृहिणी थीं। उन्होंने शंकर के सर्वशास्त्राध्ययन पर विशेष ध्यान दिया। पिता के देहान्त के पश्चात् सात वर्ष की आयु में उनका यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ। शंकर ने अल्पायु में ही असामान्य बुद्धि का प्रदर्शन किया। सोलह वर्ष की आयु में ही वे सभी दर्शनों तथा धर्म-विज्ञान के आचार्य हो गये। उन्होंने इसी आयु में गीता उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र के भाष्यों की रचना कर दी।
शंकर की माता अपने पुत्र के विवाह के लिए ज्योतिषियों से किसी कन्या की जन्म-कुण्डली के विषय में परामर्श कर रही थीं; किन्तु शंकर ने संसार त्याग तथा संन्यास ग्रहण का दृढ़ निश्चय कर लिया था। उनकी माता को इस बात से अत्यन्त दुःख हुआ कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके अन्तिम संस्कार के लिए कोई नहीं रह जायेगा; किन्तु शंकर ने उनको पूर्ण आश्वासन दिया कि वे मृत्युशय्या पर उनकी सेवा में सतत उद्यत रहेंगे और उनका दाह-संस्कार विधिवत् कर देंगे । किन्तु उनकी माता इससे आश्वस्त न हो सकीं।
एक दिन शंकर अपनी माता के साथ नदी में स्नान करने गये । शंकर नदी में कूद गये। वहाँ उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई मगर उनको खींचे चला जा रहा है। उन्होंने तीव्र स्वर में अपनी माता को पुकारते हुए कहा- "मेरी प्रिय माता, मुझे एक मगर पानी में लिये जा रहा है । अब मेरा अन्त समीप है। मुझे एक संन्यासी के रूप में मृत्यु को प्राप्त होने दो। मैं एक संन्यासी के रूप में शरीर त्याग की सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे तुम आतुर-संन्यास ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करो।”
माता ने तत्काल ही उन्हें इसकी अनुमति प्रदान कर दी। तब शंकर ने शीघ्र ही आतुर - संन्यास ग्रहण कर लिया। मगर ने उन्हें निरापद जल से बाहर निकल जाने दिया। शंकर नाम मात्र के संन्यासी के रूप में नदी के बाहर आ गये। उन्होंने अपनी माता के समक्ष अपने वचन की पुनः पुष्टि की और उनको अपने सम्बन्धियों के संरक्षण में छोड़ कर अपनी सम्पत्ति उन लोगों को दे दी। तत्पश्चात् संन्यास की पावन दीक्षा के विधिवत् ग्रहण के लिए वे किसी आचार्य की खोज में निकल पड़े।
आदि शंकराचार्य हिमालय स्थित बदरिकाश्रम के एक पर्ण कुटीर में गोविन्दाचार्य से मिले और उन्होंने उनको साष्टांग प्रणाम किया। गोविन्द ने आदि शंकराचार्य से पूछा कि वे कौन हैं ? आदि शंकराचार्य ने उत्तर दिया- "हे पूज्य गुरुदेव, मैं न अग्नि हूँ, न आकाश; न जल हूँ, न पृथ्वी। मैं इनमें से कुछ भी न हो कर वह अमर्त्य आत्मा हूँ जो समस्त नाम-रूपों में अन्तर्भूत है ।" अन्त में उन्होंने यह भी कहा – “मैं केरल के शिवगुरु नामक एक ब्राह्मण का पुत्र हूँ। मेरी बाल्यावस्था में ही मेरे पिता का देहान्त हो गया। मेरी माता ने ही मेरा पालन-पोषण किया। एक आचार्य के चरणों में बैठ कर मैंने वेदों तथा शास्त्रों का अध्ययन किया। एक दिन नदी में स्नान करते समय जब एक मगर ने मेरा पैर पकड़ लिया, तब मैंने आतुर संन्यास ग्रहण कर लिया। कृपया अब मुझे पावन संन्यास की विधिवत् दीक्षा दीजिए।"
स्वामी गोविन्द शंकर द्वारा प्रस्तुत इस यथार्थ वृत्तान्त से अत्यधिक प्रसन्न हुए । उनको संन्यास-दीक्षा देने के पश्चात् उन्होंने उन्हें संन्यासी के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान किये। इसके उपरान्त स्वामी गोविन्द ने उन्हें अद्वैत वेदान्त की शिक्षा दी जिसे उन्होंने स्वयं अपने गुरु गौड़पादाचार्य से ग्रहण किया था। अपने गुरु गोविन्दपाद की कृपा से आदि शंकराचार्य समस्त दार्शनिक सिद्धान्तों तथा मतों से पूर्णरूपेण परिचित हो गये। गोविन्द ने उन्हें काशी जाने को कहा। काशी पहुँच कर आदि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों तथा गीता पर भाष्य लिखे। वहाँ उनकी कृतियों की जो आलोचना हुई, उसका उन्होंने सफलतापूर्वक प्रतिवाद किया। तत्पश्चात् उन्होंने अपने दार्शनिक मत के प्रचार-प्रसार के अभियान का प्रारम्भ किया। आदि शंकराचार्य के मन में अपने गुरु गोविन्दपाद तथा परम गुरु (गुरु के गुरु) गौड़पाद के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी ।
आदि शंकराचार्य का दिग्विजय अभियान
आदि शंकराचार्य का दार्शनिक विजय अभियान संसार में अद्वितीय है। अपनी विजय पताका उन्होंने सम्पूर्ण भारत पर फहरा दी। वे विभिन्न मतावलम्बी सम्प्रदायों के पीठाधीश्वरों से मिले। उन लोगों को उनकी युक्तियों के समक्ष विवश हो कर उनकी दार्शनिक अवधारणाओं के प्रति सहमत होना पड़ा और इस प्रकार उन्होंने अपने भाष्यों में प्रतिपादित धर्म के सत्य तथा वर्चस्व को प्रमाणित कर दिखाया। वे समस्त प्रख्यात ज्ञान-केन्द्रों में गये । उन्होंने वहाँ के पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और उनके समक्ष अपने तर्क प्रस्तुत कर उनकी आस्था को अपने मत तथा दृष्टिकोण के प्रति सुदृढ़ कर दिया। उन्होंने भट्ट भास्कर को पराजित कर उनके वेदान्त-सूत्र-भाष्य की भर्त्सना की और दण्डी तथा मयूर को अपने दर्शन की शिक्षा दी। तत्पश्चात् उन्होंने शास्त्रार्थ में 'खण्डन खण्ड खाद्य' के प्रणेता हर्ष, अभिनवगुप्त, मुरारी मिश्र, उदयनाचार्य, धर्मगुप्त, कुमारिल तथा प्रभाकर को पराजित किया।

इसके पश्चात् आदि शंकराचार्य महिष्मती गये । मण्डन मिश्र महिष्मती की राज सभा के मुख्य पण्डित थे । मण्डन मिश्र को कर्ममीमांसा के मत में प्रशिक्षित किया गया था; अतः उनके मन में संन्यासियों के प्रति तीव्र घृणा के भाव थे। आदि शंकराचार्य एक दिन उस स्थान पर पहुँचे जहाँ वे किसी के श्राद्ध-संस्कार में संलग्न थे। उन्हें देखते ही मण्डन मिश्र क्रोधोन्मत्त हो उठे । वार्तालाप अशोभन हो गया; किन्तु श्राद्ध भोजन के लिए निमन्त्रित ब्राह्मणों ने हस्तक्षेप कर मण्डन मिश्र को शान्त कर दिया। इसके पश्चात् आदि शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र को धार्मिक वाद-विवाद की चुनौती दी जिसे मण्डन मिश्र ने स्वीकार कर लिया। भारती, जो मण्डन मिश्र की पत्नी तथा विपुल ज्ञान-राशि की स्वामिनी थी, को निर्णायिका मनोनीत किया गया। यह पहले ही निश्चित कर लिया गया कि यदि आदि शंकराचार्य की पराजय हुई, तो वे गृहस्थ हो कर वैवाहिक जीवन व्यतीत करेंगे और यदि मण्डन मिश्र पराजित हुए, तो उनको संन्यास ग्रहण कर स्वयं अपनी पत्नी से ही संन्यासी का वस्त्र-ग्रहण करना होगा। वाद-विवाद विधिवत् प्रारम्भ हुआ और कई दिनों तक बिना किसी विघ्न-बाधा के चलता रहा। भारती ने इस वाद-विवाद को स्वयं नहीं सुना । उसने वाद-विवाद-रत दोनों व्यक्तियों के कन्धे पर एक-एक माला फेंक कर कहा—“जिसकी माला सर्वप्रथम मुरझाने लगेगी, उसे स्वयं को पराजित समझ लेना होगा ।” इतना कह कर वह गृह-कार्य में संलग्न हो गयी। वाद-विवाद सत्तरह दिनों तक चलता रहा। तत्पश्चात् मण्डन मिश्र की माला मुरझाने लगी। इसके परिणाम स्वरूप उन्होंने स्वयं को पराजित मान कर संन्यास ग्रहण करना तथा आदि शंकराचार्य का अनुयायी बनना स्वीकार कर लिया।
भारती विद्या की देवी सरस्वती का अवतार थी। एक बार एक बृहद् सभा में ब्रह्मा तथा सरस्वती के समक्ष वेद-पाठ करते हुए ऋषि दुर्वासा से किचित् त्रुटि हो गयी जिससे सरस्वती को हँसी आ गयी। इस पर दुर्वासा ने क्रुद्ध हो कर उन्हें भू-लोक में जन्म-ग्रहण का शाप दे दिया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें भारती के रूप में जन्म लेना पड़ा।
भारती ने हस्तक्षेप करते हुए कहा- "मैं मण्डन की अर्धागिनी हूँ । आपने उनके एक अर्धाश को ही पराजित किया है; अतः आप मुझसे भी वाद-विवाद कीजिए।" आदि शंकराचार्य ने एक स्त्री से वाद-विवादों के विरोध में अपना प्रतिवाद व्यक्त किया; किन्तु भारती ने उनके समक्ष ऐसे उद्धरण प्रस्तुत किये जिनसे स्त्री-पुरुष के बीच हुए पूर्व-वाद-विवादों की पुष्टि हो जाती थी। अब आदि शंकराचार्य भारती के प्रस्ताव से सहमत हो गये और वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ जो अनवरत रूप सत्तरह दिनों तक चलता रहा। भारती विभिन्न शास्त्रों से उद्धरण प्रस्तुत करती रही, किन्तु अन्ततः उसे अपनी पराजय का पूर्वाभास होने लगा; अतः उसने उन्हें काम-शास्त्र-सम्बन्धी वाद-विवाद के माध्यम से परास्त करने का निश्चय किया।
आदि शंकराचार्य ने काम-सम्बन्धी वाद-विवाद के लिए भारती से एक मास के अवकाश की माँग की जिसे उसने स्वीकार कर लिया। आदि शंकराचार्य ने काशी जा कर अपनी योग-शक्ति से अपने सूक्ष्म शरीर को अपने भौतिक शरीर से पृथक् कर लिया और अपने भौतिक शरीर को एक विशाल वृक्ष के छिद्र में रख दिया। अपने शिष्यों को अपने भौतिक शरीर की सुरक्षा का भार सौंप कर वे राजा अमरुक के मृत शरीर में प्रविष्ट हो गये जिसका शीघ्र ही दाह-संस्कार होने वाला था। राजा उठ खड़ा हुआ और वहाँ उपस्थित सभी लोग इस आश्चर्यप्रद घटना से हर्षोन्मत्त हो उठे।
मन्त्रियों तथा रानियों को शीघ्र ही उस पुनर्जीवित राजा में भिन्न गुणों तथा विचारों युक्त किसी पृथक् व्यक्ति के दर्शन होने लगे। उनको अनुभव होने लगा कि उनके से राजा के शरीर में किसी महात्मा की आत्मा का प्रवेश हो गया है; अतः उन्होंने दूतों को किसी विजन वन या किसी गुहा में गुप्त रूप से संरक्षित किसी मानव शरीर की खोज तथा उसकी प्राप्ति के पश्चात् उसे जला देने के लिए भेज दिया। उन्होंने सोचा कि ऐसा करने से उन्हें राजा का दीर्घकालिक सम्पर्क प्राप्त हो जायेगा ।
आदि शंकराचार्य को रानियों के प्रेम के सारे अनुभव प्राप्त हो रहे थे। माया अत्यधिक शक्तिशालिनी है । आदि शंकराचार्य ने अपने शिष्यों को उनके पास पुनः आगमन का वचन दिया था; किन्तु रानियों के सान्निध्य में रहते-रहते उनको अपना यह वचन पूर्णतः विस्मृत हो चुका था। शिष्य उनकी खोज करने लगे। उन्होंने राजा अमरुक के पुनर्जीवन की चमत्कारपूर्ण घटना की बात सुनी। इसके पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने नगर में जा कर राजा से बात की । उन्होंने उनके समक्ष कुछ दार्शनिक गीत गाये जिसके फल-स्वरूप उनकी स्मृति पुनः जाग्रत हो गयी। शिष्य शीघ्र ही उस स्थान पर पहुचे जहाँ आदि शंकराचार्य का मृत शरीर छिपा कर रखा गया था; किन्तु उस समय तक दूतों को वह मृत शरीर प्राप्त हो चुका था और वे उसे जलाने जा रहे थे। उसी समय आदि शंकराचार्य की आत्मा उनके शरीर में प्रविष्ट हो गयी। शंकर ने भगवान् हरि से सहायता की याचना की। इसके फल-स्वरूप शीघ्र ही वृष्टि होने लगी जिससे अग्नि की ज्वाला का शमन हो गया।
इसके पश्चात् आदि शंकराचार्य मण्डन मिश्र के घर गये। वहाँ पूर्व-वाद-विवाद पुनः आरम्भ हुआ जिसमें उन्होंने भारती के सभी प्रश्नों के उत्तर सन्तोषजनक रूप से दे दिये। तत्पश्चात् मण्डन मिश्र ने अपनी सारी सम्पत्ति भेंट-स्वरूप आदि शंकराचार्य को दे दी जिसे निर्धनों तथा दान-ग्रहण के लिए उपयुक्त पात्रों में वितरित कर दिया गया । मण्डन मिश्र आदि शंकराचार्य के शिष्य हो गये । आदि शंकराचार्य ने संन्यास के पावन आश्रम में दीक्षित कर उन्हें सुरेश्वराचार्य के नाम से अभिहित किया । सुरेश्वराचार्य प्रथम संन्यासी थे जिन्होंने शृंगेरी मठ का प्रभार ग्रहण किया। भारती भी आदि शंकराचार्य के साथ शृंगेरी चली गयी जहाँ आज भी उसकी पूजा होती है । भारत के प्रत्येक अंचल से वैदिक विद्वानों को आमन्त्रित कर और उनके अनेक प्रश्नों के उत्तर दे कर आदि शंकराचार्य सर्वज्ञता की उच्च पीठिका पर आसीन हो गये । इसके अतिरिक्त अपने युग के समस्त धार्मिक प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त तथा वैदिक धर्म की श्रेष्ठता स्थापित कर वे जगद्गुरु हो गये । उनके इन प्रतिद्वन्द्वियों में भिन्न-भिन्न बहत्तर मतों के प्रति आस्थावान् अनुयायी थे ।
अन्य धार्मिक सम्प्रदायों पर आदि शंकराचार्य की विजय सर्वांगतः पूर्ण थी; अतः भारत-भूमि पर उनको चुनौती देने का साहस किसी सम्प्रदाय में नहीं रह गया। इनमें से कई सम्प्रदाय तो विलुप्त ही हो गये। आदि शंकराचार्य के युग के पश्चात् भी कई एक आचार्यों का आविर्भाव हुआ; किन्तु आदि शंकराचार्य ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को जिस अदम्य उत्साह तथा शक्ति से परास्त कर अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित किया था, उसका उनमें सर्वथा अभाव था ।
माता का दाह संस्कार
अपनी माता के गम्भीर रोग से पीड़ित होने की सूचना प्राप्त होने पर आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों को छोड़ कर अकेले ही कालडि की ओर चल पड़े। तब उनकी माता रोग-शय्या पर थीं । उन्होंने श्रद्धा-स्वरूप उनके चरणों का स्पर्श किया और भगवान् हरि से स्तुति की जिसके फल-स्वरूप स्वर्गदूतों का आगमन हुआ और वे अपने भौतिक शरीर का परित्याग कर उनके साथ गो-लोक में चली गयीं ।
अपनी माता के दाह संस्कार के समय आदि शंकराचार्य को गम्भीर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा। गृहस्थों के लिए विहित आचार-संहिता का पालन संन्यासियों के लिए वर्जित है। सभी नम्बूदरी ब्राह्मण आदि शंकराचार्य के विरोधी थे। आदि शंकराचार्य को अपने सम्बन्धियों का सहयोग भी नहीं प्राप्त हो सका। यहाँ तक कि चिता को अग्नि को समर्पित करने के लिए उन्होंने उन्हें अग्नि भी नहीं दी। अन्ततः उन्होंने अकेले ही दाह-संस्कार का निश्चय किया, किन्तु वे अकेले ही शव को उठा पाने में असमर्थ थे; अतः उन्होंने शव को खण्ड-खण्ड कर घर के पृष्ठ भाग तक पहुँचा दिया जहाँ उन्होंने कदली-स्तम्भ से चिता का निर्माण कर उसे अपनी योग-शक्ति से प्रज्वलित कर दिया। आदि शंकराचार्य नम्बूदरियों को एक पाठ पढ़ाना चाहते थे। उन्होंने अन्तिम संस्कार-सम्बन्धी स्थानीय लोकाचार को इस प्रथा में परिणत कर दिया जिसके अनुसार नम्बूदरी ब्राह्मणों के परिवार के किसी भी व्यक्ति के शव दाह के लिए प्रत्येक घर में एक पृथक् स्थान की व्यवस्था तथा दाह-संस्कार के पूर्व शव को खण्डित करना अनिवार्य हो गया।
इसके पश्चात् आदि शंकराचार्य शृंगेरी लौट गये। वहाँ से वे बहुसंख्य अनुयायियों के साथ पूर्वी समुद्र तट होते हुए पर्यटन के लिए निकल पड़े। वे जहाँ भी गये, वहाँ उन्होंने अद्वैत वेदान्त का उपदेश दिया। पुरी में उन्होंने गोवर्धन मठ की स्थापना की। कांचीपुरम में उन्होंने शाक्तों की भर्त्सना की और मन्दिरों का विशुद्धिकरण किया । चोल तथा पाण्ड्य राज्यों के शासकों को उन्होंने अपना पक्ष समर्थक बना लिया। उज्जैन पहुँच कर उन्होंने मानव-रक्त-पात में संलग्न भैरवों की नृशंसता का अन्त किया। वहाँ से वे द्वारका गये, जहाँ उन्होंने एक मठ की स्थापना की। तत्पश्चात् उन्होंने गंगा तट पर स्थित कई स्थानों पर महान् व्यक्तियों से धार्मिक वाद-विवाद किये ।
आदि शंकराचार्य का अन्त
कामरूप अर्थात् आधुनिक गोहाटी पहुँच कर उन्होंने शाक्त भाष्यकार अभिनव गुप्त को वाद-विवाद में पराजित कर दिया। अभिनव को अपनी पराजय की अनुभूति अत्यन्त तीव्र रूप में हुई। उन्होंने अपने अभिचार कौशल से आदि शंकराचार्य को अर्श रोग से पीड़ित कर दिया; किन्तु पद्मपाद ने इस अभिचार कौशल का उन्मूलन कर उन्हें रोग मुक्त कर दिया। इसके पश्चात् वे हिमालय के पर्वतीय अंचलों में गये। जोशी में उन्होंने एक मठ तथा बदरी में एक मन्दिर की स्थापना की। वहाँ से वे उच्चतर पर्वतीय अंचल में स्थित केदारनाथ पहुँचे। वहाँ बत्तीस वर्ष की आयु में ८२० ई. में उन्होंने लिंग के साथ तद्रूपता प्राप्त कर ली ।
श्रृंगेरी मठ
कर्नाटक राज्य के उत्तरपूर्व पश्चिमी घाट के मनोरम पाद-गिरि में अक्षत वनों से आच्छादित शृंगेरी ग्राम स्थित है। आदि शंकराचार्य ने अपने प्रथम मठ की स्थापना यहीं की । तुंगभद्रा नदी की एक शाखा तुंगा नदी इस उपत्यका से हो कर मन्दिर के प्राचीरों का स्पर्श करती हुई बहती है। इसका विशुद्ध तथा निर्मल जल पान के लिए उतना ही विख्यात है जितना गंगा का जल स्नान के लिए (गंगा स्नानम्, तुंगा पानम्) । शृंगेरी की भूमि अति-पवित्र तथा इसकी सुन्दरता मुग्धकारी है। मठ की व्यवस्था आज भी समुचित विधि से हो रही है। विद्यारण्य जैसे इस मठ के अधीश्वरों की महानता के साथ-साथ इस मठ के संस्थापक की ख्याति के कारण भी साधक तथा भक्त जन इस मठ के प्रति अकृत्रिम हृदय से अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

यहाँ इस बात का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि संस्कृत के सुविदित प्राध्यापक मैक्समूलर को ऋग्वेद पर विद्यारण्य, जो सायण के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, के भाष्य के अनुवाद में तीस वर्ष लगे। विद्वान् प्राध्यापक अपने अनुवाद की भूमिका में कहते हैं कि इस अनुवाद-कर्म में तीस वर्षों के अन्तर्गत उन्हें किसी भी दिन दश मिनट के कम श्रम नहीं करना पड़ा। इस सम्बन्ध में एक रोचक घटना का भी उल्लेख मिलता है। जब पाण्डुलिपि के कुछ स्थल अपाठ्य-अस्पष्ट प्रतीत होते थे, तब मैसूर के तत्कालीन महाराजा के प्रभाव के कारण उन्हें शृंगेरी मठ में अभी तक सुरक्षित इसकी प्रथम मौलिक कृति की आधिकारिक प्रतिलिपि प्राप्त हो जाती थी।
श्री शारदा की वेदिका भी भक्तों को समानरूपेण आकर्षित करती है। भारत में ऐसे मठों तथा विहारों का बाहुल्य है जहाँ भारत के प्रत्येक अंचल से हिन्दू एकत्र होते हैं; किन्तु महानता तथा ख्याति में इनमें से कोई भी आदि शंकराचार्य के मूल-पीठ शृंगेरी के समकक्ष नहीं है। शृंगेरी मठ संसार के प्राचीनतन मठों में है जो बारह शताब्दियों से भी अधिक समय से निरन्तर आध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त करता आ रहा है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार विद्यापीठों में यह प्रथम है। शेष तीन के नाम पुरी, द्वारका तथा जोशी हैं जिनमें से प्रत्येक हिन्दुओं के चार वेदों में से किसी एक वेद का प्रतिनिधित्व करता है।

आदि शंकराचार्य ने अपने चार शीर्षस्थ शिष्यों (सुरेश्वराचार्य, पद्मपाद, हस्तामलक तथा तोटकाचार्य) को क्रमशः शृंगेरी मठ, जगन्नाथ मठ, द्वारका-मठ तथा जोशी-मठ का प्रभारी बनाया। गुरु-परम्परा में वेदों के भाष्यकार तथा विजयनगर की वंश-परम्परा के आदि पुरुष विद्यारण्य निर्विवाद रूप से सर्वाधिक प्रसिद्ध संन्यासी थे । वे विजयनगर के दीवान थे । १३३१ ई० में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। विद्यारण्य के पूर्व के ग्यारह संन्यासियों के नाम हैं- शंकराचार्य, विश्वरूप, नित्यबोधघन, ज्ञानघन, ज्ञानोत्तम, ज्ञान गिरि, सिंह गिरीश्वर, ईश्वर तीर्थ, नरसिंह तीर्थ, विद्याशंकर तीर्थ तथा भारती कृष्ण तीर्थ।
मुंगेरी मठ के ऐतिहासिक तथा पावन धर्माध्यक्षीय सिंहासन को व्याख्यान-मठ अर्थात् विद्यापीठ कहा जाता है। पारम्परिक रूप से प्रचलित एक जन श्रुति के अनुसार आदि शंकराचार्य के अगाध पाण्डित्य से प्रभावित हो कर सरस्वती ने इस विद्यापीठ को उन्हें प्रदान किया था। वर्तमान पीठाधीश्वर के पूर्व इस धर्माध्यक्षीय सिहासन पर पैंतीस आचार्य आनुक्रमिक, नियमित तथा अव्यहित रूप से आसीन होते रहे हैं।
दशनामी संन्यासी
आदि शंकराचार्य ने संन्यासियों को दश निश्चित अखाड़ों या संघों में संघटित किया जिन्हें सम्मिलित रूप से दशनामी कहते हैं। इन संन्यासियों के नाम के अग्रांश से निम्नांकित दश प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय अवश्य सम्बद्ध रहता है :
सरस्वती, भारती, पुरी (शृंगेरी मठ), तीर्थ, आश्रम (द्वारका-मठ), गिरि, पर्वत तथा सागर (जोशी-मठ), वन तथा अरण्य (गोवर्द्धन मठ) ।
उक्त वर्गों में परमहंस शीर्षस्थ है। वेदान्त के दीर्घकालिक अध्ययन ध्यान तथा आत्मसाक्षात्कार से परमहंस-पद की सम्प्राप्ति सम्भव है। अतिवर्णाश्रमी जाति तथा आश्रमों के परे होते हैं। वे सभी वर्गों के लोगों के साथ भोजन कर लेते हैं। आदि शंकराचार्य- मतावलम्बी संन्यासी समस्त भारत में पाये जाते हैं।
कुछ घटनाएँ
एक दिन आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ गंगा स्नान को जा रहे थे। मार्ग में उनको एक चाण्डाल मिला जो अपने कुत्ते के साथ उसी मार्ग से कहीं जा रहा था। उसे आदि शंकराचार्य के पार्श्व के निकट देख कर आदि शंकराचार्य के शिष्यों ने उच्च स्वर में उसे उस मार्ग से अलग हट जाने के लिए कहा। इस पर चाण्डाल ने आदि शंकराचार्य से कहा- "हे पूजनीय गुरु, आप अद्वैत वेदान्त के उपदेशक हैं। फिर भी आप मनुष्य-मनुष्य में इस सीमा तक काभेद-दर्शन करते हैं। इसे आपके अद्वैत मत के उपदेशों के अनुरूप कैसे समझा जा सकता है? क्या अद्वैत मत एक सिद्धान्त मात्र है?" आदि शंकराचार्य चाण्डाल के इस बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न से हतप्रभ रह गये। उन्होंने मन-ही-मन सोचा - 'भगवान् शिव ने मुझे एक पाठ पढ़ाने के लिए यह रूप धारण किया है।' उन्होंने वहीं तत्काल पांच श्लोकों की रचना कर दी जिसे मनीषा पंचक कहते हैं। इनमें से प्रत्येक श्लोक का अन्त इस प्रकार होता है—“जो सर्वभूतों को अद्वैत के प्रकाश में देखने में अभ्यस्त है वही, चाहे वह चाण्डाल हो या ब्राह्मण, मेरा यथार्थ गुरु है।"
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काशी में एक विद्यार्थी संस्कृत-व्याकरण के कुछ सूत्र रटे जा रहा था। "डुकृञ्करणे, डुकृञ्करणे", वह इसकी पुनः-पुनः आवृत्ति कर रहा था। इसे सुन कर वे उस विद्यार्थी के अध्यवसाय से चकित रह गये। आत्मा की मुक्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार के अध्ययन की अर्थहीनता को अनावृत करने के लिए उन्होंने तत्काल अपना सुप्रसिद्ध संक्षिप्त गीत 'भज गोविन्दम्' गाया जिसका अर्थ है, "गोविन्द की उपासना करो, गोविन्द की उपासना करो, गोविन्द की उपासना करो। हे मूढमते, अन्त-काल में संस्कृत के इन सूत्रों की आवृत्ति से तुम्हारी रक्षा नहीं हो पायेगी।"
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एक बार दुष्ट प्रकृति के कुछ व्यक्तियों ने आदि शंकराचार्य को मद्यमांस की भेंट दी; किन्तु आदि शंकराचार्य के दाहिने हाथ के स्पर्श मात्र से मांस सेब तथा मद्य दूध हो गया।
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एक कापालिक ने आदि शंकराचार्य से भेंट-स्वरूप उनके शिर की याचना की। आदि शंकराचार्य ने उसकी याचना को स्वीकार करते हुए कहा कि जब वे किसी एकान्त स्थान में ध्यानस्थ हों, तब वह उनका शिर ले ले। कापालिक उनके शिर को लक्ष्य कर उन पर कृपाण चलाना ही चाहता था कि आदि शंकराचार्य के निष्ठावान् शिष्य पद्मपाद ने उसे पकड़ कर छुरे से उसकी हत्या कर दी । पद्मपाद भगवान् नृसिंह के उपासक थे। वस्तुतः भगवान् नृसिंह ने ही पद्मपाद के शरीर में प्रविष्ट हो कर उस कापालिक का वध कर दिया था।
आदि शंकराचार्य का दर्शन
आदि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों तथा गीता पर भाष्य लिखे। ब्रह्मसूत्र पर उनके भाष्य | को शारीरक भाष्य कहते हैं। उन्होंने 'सनत्सुजातीय' तथा 'सहस्रनाम अध्याय' पर भी भाष्य लिखे । प्रायः ऐसा कहा जाता है कि तर्कशास्त्र तथा 'मीमांसा' के अध्ययन के लिए आदि शंकराचार्य के भाष्यों तथा भक्ति को स्फुरित तथा सृदृढ़ करने वाले व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए उनकी कृतियों 'विवेकचूड़ामणि', 'आत्मबोध', 'अपरोक्षानुभूति,' 'आनन्द-लहरी', 'आत्म-अनात्म-विवेक', 'दृक्-दृश्य-विवेक' तथा 'उपदेश-साहस्री' का अध्ययन करना चाहिए। आदि शंकराचार्य ने पद्य में भी अनेक मौलिक कृतियों का सृजन किया जो माधुर्य, स्वर-लालित्य तथा वैचारिकता में अद्वितीय हैं।
आदि शंकराचार्य का परब्रह्म, निर्गुण, निराकार, निर्विशेष तथा अकर्ता है। वह आप्तकाम है। आदि शंकराचार्य कहते हैं—“यह आत्मा स्वयंप्रकाश है। आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण द्वारा आत्मा की सिद्धि नहीं होती। आत्मा का निराकरण असम्भव है; क्योंकि जो उसका निराकरण कर रहा होता है, उसका वह सार-तत्त्व है। आत्मा सर्व ज्ञान का अधिष्ठान है । आत्मा आभ्यन्तर है, आत्मा बाह्य है; आत्मा पूर्व है, आत्मा पश्च है; आत्मा दक्षिण पार्श्व में है, आत्मा वाम पार्श्व में है; आत्मा ऊर्ध्व में है, आत्मा अधः में है।"
सत्यम्-ज्ञानम्-अनन्तम्-आनन्दम्—ये लक्षण एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। ब्रह्म अवर्णनीय है; क्योंकि वर्णन में भेद अन्तर्निहित है। ब्रह्म की तुलना स्वयं ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती ।
नामरूपात्मक जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। एकमात्र आत्मा की ही यथार्थ सत्ता है। जगत् की सत्ता मात्र व्यावहारिक है।
आदि शंकराचार्य केवलाद्वैत दर्शन के प्रतिपादक थे। उनके उपदेशों का सार निम्नांकित शब्दों में सन्निहित है :
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: – एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव तथा ब्रह्म में तादात्म्य-सम्बन्ध है। "
आदि शंकराचार्य ने विवर्तवाद का उपदेश दिया। जिस प्रकार रज्जु में सर्प का अध्यारोप किया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म में जगत् तथा शरीर का अध्यारोप किया जाता है। यदि आपको रज्जु का ज्ञान हो जाता है, तो सर्प का भ्रम विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति से शरीर तथा जगत् भ्रम की निवृत्ति हो जाती है।
भारत माता ने जिन सपूतों को जन्म दिया है, उन कुशाग्रबुद्धि महान् आत्माओं में आदि शंकराचार्य अग्रगण्य हैं। वे अद्वैत-दर्शन के प्रतिपादक थे। वे एक महान् तत्त्वमीमांसक, एक व्यावहारिक दार्शनिक, एक निर्भ्रान्त तार्किक एवं गत्यात्मक व्यक्तित्व तथा एक नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति के स्वामी थे। जहाँ तक किसी विचार के ग्रहण तथा उसके स्पष्टीकरण का प्रश्न है, उनकी मेधा अपरिमित थी। वे एक सिद्ध योगी, ज्ञानी तथा भक्त थे । वे उच्च श्रेणी के कर्मयोगी भी थे। लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में उनकी क्षमता अप्रतिम थी।
ज्ञान की ऐसी कोई भी विधा नहीं है जो उनकी गवेषणा से वंचित रह गयी हो। इन सभी को उनकी अधिमानवीय बुद्धि के संस्पर्श द्वारा परिष्कृत तथा पूर्ण होने का सुयोग प्राप्त हुआ। आदि शंकराचार्य तथा उनकी कृतियों के प्रति हमारे मन में प्रगाढ़ श्रद्धा है। उनके मन की उदात्तता, सौम्यता तथा दृढ़ता, प्रश्नों के उत्तर के सम्बन्ध में उनकी निष्पक्षता, उनकी अभिव्यक्ति की स्पष्टता- ये सभी बातें उनके प्रति हमारी श्रद्धा को अधिकाधिक सुदृढ़ करती हैं। जब तक आकाश में सूर्य प्रकाशित होता रहेगा, तब तक संसार उनके उपदेशों से वंचित नहीं होगा।
आज भी आदि शंकराचार्य की प्रगाढ़ विद्वत्ता और दुरूह दार्शनिक समस्याओं की स्पष्ट व्याख्या के कारण संसार के समस्त दार्शनिक मतों के अनुयायी उनको श्रद्धा तथा सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। वे प्रचण्ड मेधा के स्वामी, तत्त्वद्रष्टा दार्शनिक, सुयोग्य प्रचारक, अनन्य उपदेशक, प्रतिभासम्पन्न कवि तथा महान् समाज-सुधारक थे । सम्भवतः किसी भी साहित्य के इतिहास में उनकी कोटि के विस्मयजनक रचनाकार का आविर्भाव नहीं हुआ। आधुनिक युग के पाश्चात्य विद्वान् भी उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। समस्त प्राचीन दार्शनिक सिद्धान्तों की तुलना में शंकराचार्य के सिद्धान्त सर्वाधिक अनुकूल तथा सुगमतापूर्वक ग्रहणीय हैं ।
FAQ
प्रश्न 1: आदि शंकराचार्य कौन थे?
उत्तर: आदि शंकराचार्य एक महान भारतीय दार्शनिक, आचार्य, और धार्मिक गुरु थे जिन्होंने अपने समय में 8वीं या 9वीं शताब्दी में भारत में जीवन बिताया था। उन्होंने वेदांत दर्शन को प्रमुखता से प्रचारित किया और अद्वैत वेदांत की परंपरा स्थापित की।
प्रश्न 2: आदि शंकराचार्य के जीवन के बारे में क्या ज्ञात है?
उत्तर: आदि शंकराचार्य के जीवन के बारे में अधिकांश जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन के विवरण इतिहासकारों द्वारा भी अध्ययन किए गए हैं और वे विभिन्न विचारों पर आधारित हैं।
प्रश्न 3: आदि शंकराचार्य ने किस विषय पर लेखन किया था?
उत्तर: आदि शंकराचार्य ने वेदांत दर्शन पर कई लेखनी संबंधी प्रकरण रचे थे। उनका मुख्य विचार अद्वैत वेदांत में समर्थन करता था, जिसमें ब्रह्म और जगत् के एकत्व का उपदेश होता है। उन्होंने भगवद्गीता, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, और भाष्य ग्रंथों पर टिप्पणी की।
प्रश्न 4: आदि शंकराचार्य की महत्वपूर्ण शिष्यावृंद कौन थे?
उत्तर: आदि शंकराचार्य के शिष्यावृंद में पद्मपादाचार्य, हस्तामलकाचार्य, तोटकाचार्य, और सुरेश्वराचार्य जैसे अनेक प्रमुख शिष्य थे। ये शिष्य उनके विचारों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिए।
प्रश्न 5: आदि शंकराचार्य का निधन कब हुआ था?
उत्तर: आदि शंकराचार्य के निधन के विषय में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन के अंत के बारे में कुछ ऐतिहासिक प्रमाण हैं, लेकिन इस विषय में विशेषज्ञता के साथ शोध की जानी चाहिए।