गुरु तेगबहादुर हरगोविन्द के कनिष्टतम पुत्र थे । उनका जन्म १६२१ ई. में अमृतसर में हुआ था । उनकी माता का नाम नानकी था। उनके पिता ने उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि वह एक महान् जन-नायक होंगे। उन्होंने उनका नाम तेगबहादुर रखा और कहा कि तेगबहादुर का पुत्र मुगलों के अत्याचार का अन्त कर देगा। हरगोविन्द कहा करते थे कि उनका पुत्र तलवार के आघात सहन में समर्थ एक शक्ति-सम्पन्न योद्धा होगा। यही कारण है कि उनको तेगबहादुर के नाम से अभिहित किया गया। जब गुरु हरगोविन्द ने अपने उत्तराधिकार के लिए अपने पौत्र हर राय को नामाङ्कित किया, तब उन्होंने अपनी पत्नी नानकी को इस भविष्यवाणी से सान्त्वना प्रदान की कि एक दिन उसका पुत्र निश्चित रूप से गुरु-गद्दी पर पदासीन होगा और इसलिए उन दोनों को धैर्य धारण करना चाहिए। उन्होंने अपने शस्त्रास्त्र अपनी पत्नी को सौंप कर उनको अनुदेशित किया कि वह तेगबहादुर के वयस्क तथा विवेकशील हो जाने पर उन्हें उसे दे दें ।
गुरु हरकिशन ने अपने उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा नहीं की थीं। जब उनके जीवन के अन्तिम क्षणों में उनके मुँह से 'बाबा बकाला' शब्द निकले, तब बकाला के बाईस सिक्खों ने अनुचित रूप से अपने को आध्यात्मिक गुरु-गद्दी का अधिकारी घोषित कर दिया। प्रत्येक तीर्थयात्री या सिक्ख-मत के प्रति आस्थावान् भक्त को उन सभी बाईस गुरुओं को भेंट देनी पड़ती थी। उन बाईस गुरुओं के व्यवहार से विरक्त हो कर तेगबहादुर अपने घर में ही रहने लगे। संयोगवश एक घटना से उत्तराधिकार के इस विवाद का सर्वदा के लिए अन्त हो गया। मक्खन शाह नामक एक व्यक्ति का माल से लदा जहाज समुद्र में डूबने वाला था । उसने कहा कि यदि उसे इस महा विपत्ति से मुक्ति मिल जायेगी, तो वह गुरु को पाँच सौ स्वर्ण-मोहरें भेंट करेगा। जहाज डूबने से बच गया । वह गुरु को अपनी भेंट देने आया; किन्तु उसने देखा कि वहाँ एक गुरु के स्थान पर बाईस गुरु विराजमान हैं। अतः उसने प्रत्येक गुरु को दो-दो स्वर्ण मोहरें देने का निश्चय किया। उसको इस बात का विश्वास था कि जो वास्तविक गुरु होना, वह सारी स्वर्ण-मोहरों की माँग करेगा; किन्तु उसकी इस कसौटी पर कोई भी खरा नहीं उतरा। तब उसने लोगों से पूछा कि इन बाईस व्यक्तियों के अतिरिक्त और कौन है जिसने गुरु-गद्दी के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया था। उत्तर में लोगों ने गुरु-परिवार के अयोग्य सदस्य तेगबहादुर के नाम का उल्लेख कर दिया। मक्खन शाह ने उन्हें अपने घर में एक एकान्तवासी का जीवन व्यतीत करते हुए पाया। उसने उन्हें दो स्वर्ण-मोहरें भेंट कीं; किन्तु तेगबहादुर ने कहा – “क्या तुम इन दो स्वर्ण-मोहरों से मेरी परीक्षा लेने आये हो? अपने वचन का पालन करते हुए तुम मुझे पाँच सौ मौहरें दो। मैं तुम्हें ये मोहरें अपनी समझते हुए भी तुम्हें लौटा दूँगा। अर्थाभाव से ग्रस्त नहीं हूँ।” इसके पश्चात् गुरु ने उसे यह विस्तारपूर्वक बताया कि मैं उस जहाज की रक्षा कैसे हो सकी। यह सुन कर मक्खन शाह स्तब्ध रह गया और उसे सच्चे गुरु के दर्शन भी हो गये। शीघ्र ही उसने यह घोषित कर दिया कि उसे सच्चे गुरु मिल गये हैं।
वहाँ समाहर्ता तथा अन्य लोग तत्काल एकत्र हो गये। गुरु हरकिशन की मृत्यु के पश्चात् भाई गुरुदित्ता के यहाँ नारियल तथा पाँच पैसे सुरक्षित रूप से रख दिये गये थे । उन्हें तेगबहादुर के समक्ष प्रस्तुत कर १६६४ ई० में उन्हें गुरु-गद्दी पर पदासीन कर दिया गया।
गुरु-गद्दी पर तेगबहादुर के आधिपत्य के कारण ढेरमल (Dhermal) के हृदय ईर्ष्याग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसने अपने एक अनुयायी को बारह नौकरों के साथ उनकी हत्या करने के लिए भेजा जिन्होंने गुरु को गोलियों से आहत कर दिया; किन्तु चोट सांघातिक नहीं थी ।
तेगबहादुर सन्तोष तथा शान्ति की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने करतारपुर में एक दुर्ग का निर्माण किया जहाँ उन्होंने एक न्यायालय की भी व्यवस्था की। उन्होंने प्रयाग, काशी, पटना तथा गया के अतिरिक्त भारत के सभी क्षेत्रों में पर्यटन किया। सिक्खों की शिक्षा के लिए उन्होंने पटना में एक महाविद्यालय की स्थापना की।
हर राय के असन्तुष्ट पुत्र राम राय ने सम्राट् औगङ्गजेब को सूचित किया कि गुरु की योजनाएँ राज्य के लिए भयावह हैं। उसने उसे सुझाव दिया कि गुरु को नियन्त्रित करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र कोई कार्यवाही होनी चाहिए। तेगबहादुर को दिल्ली लाया गया। वह अम्बर के राजपूत सरदार राजा राम सिंह के यहाँ रुके। राम सिंह ने गुरु का पक्ष-समर्थन करते हुए औरङ्गजेब को आश्वस्त कर दिया कि गुरु एक शान्तिप्रिय व्यक्ति हैं और उनमें राजनैतिक शक्ति की प्राप्ति की आकांक्षा नहीं है।
तेगबहादुर राजा राम सिंह के साथ कामरूप तथा असम गये। राजा राम सिंह ने उनसे कामरूप-विजय के लिए उनसे सहायता की याचना की। गुरु ने इस अभियान में उनको सहयोग प्रदान किया।
जब गुरु पटना में निवास कर रहे थे, तब उनकी पत्नी गुजरी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो बाद में गोविन्द सिंह के नाम से प्रख्यात हुआ। शिशु के जन्म के अवसर पर एक फकीर तथा उसके शागिर्दों को आकाश में एक ज्योति का दर्शन हुआ। फकीर इस सत्य से परिचित हो गया कि एक ऐसे व्यक्ति का जन्म हुआ है जो सन्त के साथ-साथ योद्धा भी होगा। तत्पश्चात् उसने उस ज्योति का अनुगमन किया जो उसे नवजात शिशु के पटना-स्थित निवास स्थान तक ले गयी।
गोविन्द राय (गुरु गोविन्द सिंह) में बाल्यावस्था से ही सामरिक ऊर्जा के लक्षण परिलक्षित होने लगे थे ।
पटना के दीर्घकालीन प्रवास के पश्चात् तेगबहादुर पंजाब लौट आये । वहाँ आ कर वह सतलज के तट पर स्थित आनन्दपुर में स्थायी रूप से रहने लगे ।
सम्राट् औरङ्गजेब ने कश्मीर के हिन्दुओं के धर्मान्तरण का आदेश दे दिया। कश्मीरियों ने गुरु तेगबहादुर के पास अपना एक प्रतिनिधि-मण्डल भेजा। उस प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा व्यक्त कश्मीरियों की व्यथा-कथा से उनको बहुत दुःख हुआ । वह औरङ्गजेब के इस कुत्सित अभियान को विफल करने की युक्ति पर विचार करने लगे। उनके अल्पायु पुत्र गोविन्द राय ने उनकी विषण्णता का कारण पूछा। गुरु ने कहा- "संसार अत्याचार तथा उत्पीड़न से दुःखी है। जो प्राणोत्सर्ग के लिए उद्यत है, वही इस धरती को अत्याचारों तथा उत्पीड़कों के भार से मुक्त कर सकता है।" बालक ने कहा कि एकमात्र उसके पिता ही यह काम कर सकते हैं। गुरु अपने पुत्र के इन शब्दों से अत्यधिक अनुप्राणित हुए। उन्होंने कश्मीरियों से कहा कि वे सम्राट् से कह दें कि वे गुरु के धर्मान्तरण के बाद ही इस्लाम धर्म ग्रहण करेंगे। सम्राट् ने गुरु को दिल्ली आने का आदेश दिया ।
तेगबहादुर सम्राट् का आदेश मान कर आगरा पहुँचे जहाँ से कोतवाल उनको दिल्ली ले गया। उन्होंने इस्लाम-धर्म-ग्रहण को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर दिया। फलतः उन्हें कारागृह में डाल दिया गया। एक बार वह कारागृह की सबसे ऊपर वाली मंजिल पर चले गये। लोगों को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह वहाँ से रानियों के व्यक्तिगत कक्ष की ओर देख रहे हैं। सम्राट् ने यह सुन कर उन पर आपत्तिजनक कृत्य का अभियोग लगाया। गुरु ने कहा कि वह कारागृह के शीर्श भाग पर जा कर किसी के व्यक्तिगत कक्ष पर दृष्टिपात नहीं कर रहे थे। वह तो यूरोप के उन लोगों को देख रहे थे जो मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए भारत-भूमि पर चले आ रहे थे।
इस बीच गुरु के साथ कारागृह में लाये गये सिक्खों में से तीन सिक्ख फरार हो गये । जेलर ने गुरु को लोहे के कठघरे में बन्द कर दिया जहाँ उन्हें निर्ममतापूर्वक शारीरिक यन्त्रणा दी गयी। जब गुरु का प्राणान्त होने को था, तब उन्होंने अपने पुत्र गोविन्द राय को लिखा—“मेरी शक्ति समाप्त हो चुकी है। मैं बेड़ियों में आबद्ध हूँ और मेरे लिए मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। नानक ने कहा था- 'ईश्वर ही मेरा शरण-स्थल है'।” गुरु ने अपने पुत्र के पास गुरु-गद्दी पर उसके उत्तराधिकार के प्रतीक-स्वरूप एक नारियल तथा पाँच पैसे भेज दिये।
गुरु अपने निश्चय पर अडिग थे । कठोरतम यन्त्रणा भी उनको विचलित नहीं कर सकी। सम्राट् ने उन्हें धमकी देते हुए कहा कि या तो वह इस्लाम-धर्म ग्रहण कर लें या अपनी साधुता की सिद्धि के लिए किसी चमत्कार का प्रदर्शन करें। यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा। गुरु ने उसके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। फलतः सम्राट् ने उनको मृत्यु-दण्ड का आदेश दे दिया और एक सार्वजनिक स्थान पर उनकी हत्या कर दी गयी। उनका शिर उनके एक निष्ठावान् शिष्य के अङ्क में जा गिरा। तभी धूल-भरा झंझावात आया और अन्धकार छा गया। उसी अन्धकार में उनका वह सिक्ख शिष्य उनके शिर को ले कर तीव्र गति से आनन्दपुर की ओर दौड़ पड़ा जहाँ उनके शिर का दाह-संस्कार हुआ। पाँच सिक्ख उनके मृत शरीर को गाड़ी पर लाद कर अपने घर ले गये और उसे वहीं जला दिया गया। उस घर में आग लग गयी और उन सिक्खों का यह काम लोगों के लिए अविदित ही रह गया। उन्होंने अस्थियों को एकत्र कर धरती में गाड़ दिया। तत्पश्चात् गोविन्द राय को विधिवत् दसवाँ गुरु घोषित कर दिया गया। वह अन्तिम गुरु थे। उन्होंने अपने पिता की प्रशंसा में निम्नांकित पंक्तियाँ लिखीं :
“दिल्ली के सम्राट् के शिर पर अपना मृत्तिका पात्र तोड़ कर उन्होंने स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।
तेगबहादुर ने जो किया वह संसार में जन्म-ग्रहण करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए असम्भव रहा।
सारा संसार शोकाकुल था उनकी मृत्यु से किन्तु स्वर्ग में आनन्द का महोत्सव मनाया जा रहा था।”
गुरु तेगबहादुर ने महान् गुरु गोविन्द सिंह के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया था। सिक्खों में वह सच्चे बादशाह के रूप में पूजित हुए। उन्होंने आत्मा की आत्यन्तिक मुक्ति के लिए उनका पथ-प्रदर्शन किया। तेगबहादुर का हिंसात्मक अन्त गोविन्द सिंह के मन पर अमिट प्रभाव अङ्कित कर गया। उन्होंने मुसलमानों से प्रतिशोध लेने तथा अपने सिक्ख समुदाय को एक धार्मिक तथा सैन्य संघटन में रूपान्तरित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में वह सफल भी रहे।
तेगबहादुर गुरु-गद्दी पर ग्यारह वर्षों तक पदासीन रहे। उनकी हत्या चौवन वर्ष की आयु में की गयी ।
FAQ
प्रश्न: गुरु तेगबहादुर कौन थे?
उत्तर:गुरु तेगबहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। उनका जन्म 1621 में पंजाब के अमृतसर में हुआ था। उनकी माता का नाम नानकी था और उनके पिता ने उन्हें एक महान नेता की भूमिका में देखा था। उन्हें 'तेगबहादुर', अर्थात् 'बहादुर तलवार' का नाम दिया गया, क्योंकि उन्हें तानाशाही के खिलाफ एक रक्षक की भूमिका निभाने की उम्मीद थी।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर के नाम का क्या महत्व था?
उत्तर:गुरु तेगबहादुर का नाम उनकी महत्वपूर्ण भविष्यवाणी को प्रकट करता था, जिसमें उन्हें उत्तम योद्धा और वीरता के रूप में दिखाया गया था। उनके पिता, गुरु हरगोविंद ने उन्हें लोगों की सुरक्षा के लिए एक महान योद्धा बनाने की भविष्यवाणी दी और उनका नाम 'तेगबहादुर' रखा।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर की विरासत कैसे विकसित हुई?
उत्तर:उनके पुत्र, गुरु गोबिंद सिंह, को अगले गुरु के रूप में चुना गया। गुरु तेगबहादुर ने उनकी पत्नी माता नानकी से कहकर गोबिंद सिंह को उनके योद्धा आयु में उनके शस्त्र देने का कार्य सौंप दिया।
प्रश्न:चुनौतियों का सामना कैसे किया गया था गुरु तेगबहादुर ने?
उत्तर:मुग़ल सम्राट से मिलकर गुरु तेगबहादुर को इस्लाम धर्म की परिवर्तन करने या कोई चमत्कार करने के लिए कहा गया था। वे दोनों विकल्पों को खारिज कर दिया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर का अंत कैसे हुआ?
उत्तर:गुरु तेगबहादुर को इस्लाम में परिवर्तन करने की इनकारी आमजन को सामने देखते हुए उनका सजा सुनाई गई। उनका सिर एक निष्ठावान सिख शिष्य के हाथों में गिरा। उनके शिर को आनंदपुर ले जाकर दहन किया गया।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर ने सिख धर्म पर कैसा प्रभाव डाला?
उत्तर:गुरु तेगबहादुर की त्याग और उनकी शिक्षाएँ उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह को सिख धर्म को मजबूत बनाने और धार्मिक और सैन्य संघटन को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित किया।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर के उपदेशों का गुरु गोबिंद सिंह पर कैसा प्रभाव पड़ा?
उत्तर:गुरु गोबिंद सिंह को उनके पिता की शिक्षाएँ और उनका बलिदान गहरे रूप से प्रभावित किया। गुरु तेगबहादुर की शौर्य और समर्पण ने गुरु गोबिंद सिंह को सिख समुदाय और उसके मूल्यों को मजबूत करने के लिए प्रेरित किया।
प्रश्न:गुरु तेगबहादुर के क्रियाकलापों का क्या संदेश था?
उत्तर:गुरु तेगबहादुर के क्रियाकलापों ने धार्मिक स्वतंत्रता और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की महत्वपूर्णता को प्रमोट किया। उनकी बलिदानी त्याग ने दिखाया कि अपने धर्म और दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए व्यक्ति तैयार है, चाहे उसकी जिंदगी की कीमत ही क्यों ना हो।