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ज्योतिष शास्त्र का इतिहास | ज्ञान और प्राचीनता


    भारतीय मानव का जन्म से लेकर मरण पर्यन्त अथवा मरणानन्तर भी ज्योतिषशास्त्र के साथ अटूट सम्बन्ध अतीतकाल से चला आ रहा है। इसके महत्व का प्रतिपादन करते हुए शास्त्रकारों ने लिखा है- 'वेदस्य निर्मल चक्षुज्योतिश्शास्त्रमकल्मषम्, अर्थात् यह वैदिक वाङ्मय का चक्षुःस्थानीय होने के कारण वेद का अविभाज्य अंग है ।


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यह त्रिस्कन्ध-ज्योतिषशास्त्र -

 १. सिद्वान्त, २. संहिता और ३. होरा रूप से तीन भागों में विभक्त है। इस प्राचीनतम ज्योतिषशास्त्र की जहाँ पार- लौकिक अथवा आध्यात्मिक ( श्रीत-स्मार्त ) कर्मों के सम्पादन के लिये उपयोगिता कही गयी है, वहीं सुखायु एवं दीर्घायु प्रदान करनेवाले आयुर्वेद- शास्त्र का भी इसके साथ-चोली-दामन का साथ है। ज्योतिषशास्त्र को देखें और पढ़ें, आपको चिकित्सा में अनुपम सफलता तथा स्थायी यश प्राप्त होगा । शास्त्रों का आश्रयण हमारी सहायता करता है और उसकी उपेक्षा हमको अन्धकार की ओर ले जाती है ।


सर्वथा नवीन मत के पक्षपाती ( जिन्होंने कभी भी अपने प्राचानशास्त्री का अवलोकन, अध्ययन और मनन नहीं किया है) मुझे यह अवश्य कहेंगे कि इन पुरानी रूढियों की ओर जाने का आज किसी को समय नहीं है, परन्तु यह सत्य नहीं है । जब तक आपकी चल रही है, आप जो कुछ कह लें या कर लें, आप जब सब ओर से निराश हो जायेंगे, तो आपको ये ही शास्त्र शरण देंगे और इन्हीं से राहत मिलेगी।


"ज्योतिषशास्त्र वेद की आँख है", यह उपमा हमको इस बात का संकेत करती है, कि यदि आपने वेद के अन्य बंगों का अध्ययन कर लिया है और ज्योतिष से अनभिज्ञ हैं, तो आपका अध्ययन-पूर्ण जीवन उस सर्वाङ्गपूर्ण किन्तु नेत्रहीन पुरुष के समान है। इसीलिये कहा गया है-

'अप्रत्यक्षाणि च शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् ।

प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राको यत्र साक्षिणो' ॥


सचमुच, अन्य न्याय आदि शास्त्रों में विवाद ( शास्त्रार्थ ) के अनन्तर कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है, किन्तु यह ज्योतिषशास्त्र प्रत्यक्ष है, इसके साक्षी सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहगण हैं, अतः यह सर्वथा निर्विवाद है।



     ज्योतिष शास्त्र की प्राचीनता-वेद के छः अंगों में ज्योतिष की गणना है । अतः इसकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं । इतना अवश्य है कि इसमें काल- क्रम से जो परिवर्तन, परिवर्धन हुए हैं, उनकी अवधि पृथक्-पृथक् है । जैसे- वैदिककाल से लेकर शकसंवत् से लगभग १००० वर्ष पूर्व तक सूर्य, चन्द्र आदि सात वारों का उल्लेख नहीं मिलता आदि-आदि। इसी प्रकार की बातों का विचार करते समय पाश्चात्य-शि-दीक्षित विद्वान् कहीं-कहीं बहक जाते हैं, अन्यथा सत्य तो सत्य है ही । पाश्चात्य विद्वानों ने भी इधर अपना अमूल्य समय इस ओर लगाया । अन्य विषयों में उन्होंने अपना मतभेद भले ही प्रकट किया हो, किन्तु इस बात में वे सभी सहमत हैं, कि ज्योतिष विद्या अत्यन्त प्राचीन समय से भारत की अमूल्य निधि है ।


     इस सम्बन्ध में एशियाटिक सोसायटी के मान्य सदस्य जान वेण्टली (John Bentley ) ने अपने विचार 'Historical View of the Hindu Astronomy' ग्रन्थ में लिखे हैं, जो इसकी प्रतिष्ठा के लिये द्रष्टव्य हैं । दूसरे विदेशीय विद्वानों ने भी इसकी प्राचीनता आदि गुणों को सहर्ष स्वीकार किया है ।


ज्योतिष का स्वरूप —

    प्राचीन काल में इसके सामान्यतः दो भेदों का वर्णन मिलता है - १. गणित और २. फलित । गणित ज्यौतिष में सूर्यादि ग्रहों के स्वरूप, अवस्था, गति आदि का विचार वर्णित है। इसके पुनः तीन भेद हैं-१, सिद्धान्त, २. तन्त्र, ३. करण। इनकी परम्परा यह रही है- सिद्धान्तगणित कल्प से, तन्त्रगणित युग से और करणगणित अपने अभीष्ट शक से गणित करने की विधि का निर्देश करता है । करण-ग्रन्थों में ग्रहलाघव का अत्यन्त महत्व है। फलित ज्योतिष के लिये अनेक ग्रन्थ सुलभ हैं।

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ज्यौतिष-शास्त्र के भास्वर रत्न

    भारतीय समस्त विद्याओं के मूल स्रोत वेद हैं। उनमें भी ज्योतिषशास्त्र को वेद का छठा अंग स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार अंकों की उत्पत्ति तथा गणितशास्त्र का आविर्भाव वेदों से ही हुआ है, यह निर्भ्रान्त धारणा है। प्रश्न यह है कि आधुनिक पश्चाङ्गों का निर्माण तथा वैदिक पद्धति द्वारा निर्दिष्ट परम्परा में कितना अन्तर है, यह गवेषणा का विषय है । अब हम यहाँ आधुनिक ग्रहगणित की चर्चा प्रस्तुत करते हैं ।


आर्यभट्ट -

 अपौरुषेय ग्रन्थों की चर्चा के अनन्तर अब हम 'आर्यभट्ट' द्वारा रचित 'आर्यभट्टीय' ग्रन्थ का परिचय दे रहे हैं । सन् ४९९ ( शक संवत् ४२१ ) में इन्होंने अपने उक्त ग्रन्थ की रचना की । उक्त ग्रन्थ में वर्गमूल तथा घनमूल की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं के उदाहरण प्राप्त होते हैं । आपके परवर्ती आचार्यों में लल्ल, ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर आदि प्रमुख हैं। पटना के समीप में स्थित 'खगोल' नामक गाँव आज भी आर्यभट्ट का स्मारक है । श्रीभट्ट ने नक्षत्र-भ्रमण स्वीकार न कर भू-भ्रमण को स्वीकार किया है। इससे ऐसा लगता है किसी यवन आचार्य के मत से ये प्रभावित रहे हैं ।


आचार्य लल्ल -

 सन् ४९९ ( शक संवत् ४२१) भट्ट त्रिविक्रम के पुत्र श्रीलल्ल ने "शिष्यधीवृद्धि" नामक ग्रह गणित विषयक ग्रन्थ की रचना की इन्होंने उक्त ग्रन्थ में अपने को आर्यभट्ट का शिष्य लिखा है । इसके आगे भास्कराचार्य ने प्रभाकर आदि आर्यभट्ट के अन्य शिष्यों की भी चर्चा की है। उनके नाम इस प्रकार हैं-विजय, नन्दि, प्रद्युम्न, श्रीसेन, लाट आदि । लल्लाचार्य ने 'चन्द्रशृङ्गोन्नति' के साधन में अपनी गणितज्ञता का आश्चर्य- जनक परिचय दिया है, किन्तु भास्कराचार्य ने इस पर आपत्ति प्रकट करते हुए अपने ग्रन्थ में बहुत कुछ लिखा है ।


वराहमिहिर –

 ये वराह अथवा वराहमिहर नामों से भी जाने जाते हैं। अलबिरूनी ( Albirune) के अनुसार सन् ५०५ ( शक संवत् ४२७ ) में कालपीनगर स्थित सूर्य के परम उपासक श्री आदित्यदास के घर में श्री वराह ने जन्म लिया था। पैतृक सम्पत्ति के रूप में इनको ज्योतिष विद्या का ज्ञान प्राप्त हुआ । तदनन्तर इन्होंने लघुजातक, बृहद्जातक, विवाहपटल, बृहत्- संहिता, पञ्चसिद्धान्तिका आदि ग्रन्थों का निर्माण किया । ये अवन्ति-सम्राट् के सम्मानपात्र थे । कुछ ऐतिहासिकों का मत है कि वराहमिहिर मूलतः मगध के निवासी थे, आजीविका के लिये ये मगध से विक्रम की राजधानी प्रवन्ति नगरी में आये, यहाँ इनको राजसम्मान प्राप्त हुआ । यवन विद्वानों का भी उस समय ज्योतिष-शास्त्र में अधिकार हो गया था, जिसको वराहमिहिर ने इस प्रकार लिखा है- "म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम्" ।

   इनका बृहज्जातक ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। इसपर महादेव, महीधर, भट्टोत्पल की टीकाएँ उपलब्ध होती हैं । इन्होंने अपने इस ग्रन्थ में सत्याचार्य, जीवशर्म, सिद्धसेन, मय, पवन-मणित्थ, शक्ति, विष्णुगुप्त, देवस्वामी आदि आचार्यों के नामों का उल्लेख किया है। ये अपने समय के अद्भुत विद्वान् सिद्ध हुए हैं, जिनका अधिकार सिद्धान्त, संहिता, होरा, ज्योतिष के इन तीनों स्कन्धों में समान रूप से था ।

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