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पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप

पंच महायज्ञ का महत्व:-

   सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पञ्चमहायज्ञों के सम्पादक की व्यवस्था है। पञ्चमहायज्ञों के विषय में पहले तो यह जानना महत्वपूर्ण है कि ये केवल गृहस्थियों के लिए कहे गए हैं। इनमें से एक-दो दूसरे आश्रमों के लिये कहे गये है। पंच महायज्ञ हिन्दू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण बताये गए है। धर्म शास्त्रों ने भी हर गृहस्थ को प्रतिदिन पंच महायज्ञ करने के लिए कहा है। नियमित रूप से इन पंच यज्ञों को करने से सुख समृद्धि व जीवन में प्रसन्नता बनी रहती है। इन महायज्ञों के करने से ही मनुष्य का जीवन,परिवार, समाज, शुद्ध,सदाचारी और सुखी रहता है। शास्त्र विधि के अनुसार तीनों ऋणों से अनृण होने के लिए शास्त्रों के नित्य कर्म का विधान किया है। जिसे करके मनुष्य देव,ॠषि और पितृ-सम्बंधी तीनो ॠणो से मुक्त हो सकता है। नित्यकर्म में शारीरिक शुद्धि,संध्या बन्धन, तर्पण और देव-पूजन प्रकृति शास्त्र निर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें से ६ कर्म कुछ इस प्रकार है-

पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप


सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् ।
 वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।(परा० स्मृ० १-३९)

मनुष्यको स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव(पञ्चमहायज्ञों को ही बलिवैश्वदेव कहते हैं) और अतिथि सत्कार-ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये। पञ्चमहायज्ञ कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी व्यवस्था की ऋण मुक्ति एवं समृद्धि हेतु, उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका विधान अनिवार्य अंग के रूप में निर्दिष्ट है।


पंच महायज्ञ की महत्ता:- 

गृहस्थ के घर में पांच स्थान ऐसे हैं। जहाँ प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा की संभावना रहती हैं।


मनुस्मृति में :-

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । 

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।


तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः ।
 पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।


अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
          होमो देवो बलिभौंतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्


 चूल्हा अग्नि जलाने में, चक्की पीसते में, बुहाने में, ओखल कूटने में, जल रखने के स्थान जल पात्र रखने पर नीचे जीवों के दबने से पाप होते हैं। खाना पकाते हुए, कोई न कोई कीड़े- मकोड़े आग का शिकार हो ही जाते हैं। इसी प्रकार चक्की झाड़ू , ओखली में भी क्षुद्र कृमि-कीटों की हत्या हो जाती हैं। पानी के उबालने आदि में भी हम किसी न किसी बैक्टीरिया आदि को अवश्य मारते हैं। जबकि ये हिंसाए अन्य आश्रमों में भी होती होगी ,ये कर्म मुख्य रूप गृहस्थी ही करता हैं। अन्य व्यापार-संबंधी कर्मो में भी व्यवहारिक मनुष्य इसी प्रकार जाने-अनजाने में जीव जंतुओं को चोट पहुंचाता रहता है। ऐसे ही जबकि एक बह्मचारी भी अपने पैरों के नीचे अवश्य ही चींटी को कुचलता है। परन्तु किसान के हल से अधिक हत्या होती है। इन कारणों से प्रायश्चित्त के रुप में गृहस्थ को निर्धारित पंच यज्ञ नित्य करने होते हैं। मनु कहते है कि इन कर्मो द्वारा गृहस्थी अपनी की हुई हिंसा के निवृत्त हो जाता है। हर दिन में ५ यज्ञ करते रहने के लिए मनुस्मृति में निम्न मन्त्र से बताया गया है।

पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो देवो बलिभौंतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्


अर्थ प्रकार:-

 मानव जीवन के लिए जो पंच महायज्ञ महत्वपूर्ण माने गये है वो निम्नलिखित हैं।– 

1. ब्रह्मयज्ञ
2. देवयज्ञ
3. पितृयज्ञ
4.     भूतयज्ञ
5. अतिभियज्ञ


वेदों को पढ़ना ब्रह्मयज्ञ कहा जाता है। तर्पण,पिण्डदान और श्राद्ध को पितृयज्ञ। देवताओं के पूजन, होम हवन आदि को देवयज्ञ कहते हैं। अपने अन्न से दूसरे प्राणियों के कल्याण हेतु भाग देना भूतयज्ञ तथा घर आये अतिथि का प्रेम सहित आदर सत्कार करना अतिभियज्ञ कहलाता हैं। ब्राह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और अतिथियज्ञ यही पंचमहा यज्ञ है।


पंचमहायज्ञ करके ही गृहस्थो को भोजन करना चाहिए। पंच महायज्ञ के महत्व एवं इसके यथार्थ स्वस्थ को जानकर द्विजमात्र का कर्त्तव्य है कि वे अवश्य पंचमहायज्ञ किया करें ऐसा करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होगी।


पञ्च महायज्ञों के पृथक – पृथक रुप-  


1.ब्रह्मयज्ञ:-

 अध्ययन-अध्यापन को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं।

श्रीमद्भागवत् गीता में कहा है – 


स्वाध्यायाभ्यसनं चैन वाड्मयं तप उच्चते॥ 17/15॥


वेद शास्त्रों के पठन एवं परमेश्वर के नाम का जो जपाभ्यास हैं वही सम्बंधी तप कहा जाता है। स्वास्थ्य से ज्ञान की वृद्धि होती है। अतः सभी अवस्ताओं में ज्ञान की वृद्धि होती है। ब्रहम यज्ञ करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। ब्रह्ययज्ञ करने वाला मनुष्य ज्ञानप्रद - महर्षिगणों का अनृणी और कृतज्ञ हो जाता है। संख्या वन्दन के बाद को प्रतिदिन वेद – पुराणादि का पठन – पाठन करना चाहिए।


निम्नलिखित मन्त्र नित्यकर्म में ब्रह्म यज्ञ को प्राप्त करने के लिए पाठ करना चाहिए। यदि आज के व्यस्ततम समय में मनुष्य के पास समयभाव होता है। तो पाठकों को सुविधा के लिए प्रत्येक ग्रन्थ का आदि मन्त्र निम्नलिखित हैं।–


ऋग्वेद – हरिः ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्॥


यजुर्वेद- ॐ इषे त्वोर्जे त्वां वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्व मध्न्या इन्द्राय भांग प्रजावतीरन मीवा अध्यक्ष्मा मां वरुवेन ईशत माघस सो ध्रुवा अस्मिन्  गोपतौ स्यात बहीषजमानस्य पशून् पाहि। 


सामवेद – ॐ अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातयेनिहोता सत्सु बर्हिषि॥


अथर्ववेद – ॐ शं नो देवीरभीष्टम आपो भवन्तु पीतये। शंषोरभिस्त्र वन्तुनः।


निरुक्तम् - समाम्नायः समाम्नातः। 


छन्द- मभरसत जभन तग संमितम्।


निघण्टु- गोः ग्मा।


ज्योतिषी यम् -  पञ्चन्सवत्सरमयम् ।


शिक्षा- अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि।


व्याकरणम् -  वृद्धिरादैच्।


कल्पसूश्रम् - अथातोऽधिकारः फलयुक्तानि कर्माणि।


गृहसूत्रम् - अभातो गृहस्थलीपाकांना कर्म ।


न्यायदशैनम् -   प्रमाण प्रमेयसशंय प्रयोजन दृष्टांत सिध्दांतावयव तर्क निर्णवाद  जल्पवितणहेत्वा भास च्छलजाति निग्रहस्थानानां तत्व ज्ञानानि: श्रेय साधि गमः।


वैशैषिकदर्शनम् -  अथातो धर्म व्याख्यास्यामः

यतोऽभ्युदय  निःश्रेयसासिध्दिः धर्मा।


योगदर्शनम्- अभयोगानुशासनम्। योगव्श्रित्तवृत्तिनिरोधः।


सांख्यदर्शनम्- अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः।


भारव्दाजकर्ममीमांसा- अथातो धर्म जिज्ञासा धारकों धर्मः।


जैमिनीकर्ममीमांसा- अभातो धर्मजिज्ञासा, चोदना लक्षणोऽर्पो धर्मः ।


बह्ममीमांसा – अभातो बह्मजिज्ञासा। जन्माहास्य यतः।

                         शास्त्र- योनित्वान्। तन्तु समन्वयात्।


स्तृतिः- मनुमेकाग्रमासनि मभिगम्य महर्षयः।

             प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमबुवन्।


 रामायणम् - तपः स्वाध्यायनिप्तं तपस्वी वाग्विदां वरम्।

                    नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुग्डवम्

भारतम्-  नारायणं नमस्कृत नरच्श्रेव नरोत्तमम्।

                देवीं सरस्वर्ती व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥


पुराणमं- जन्माहास्य यतोऽन्वयदितरतश्चार्भेष्वभिज्ञः स्वराट्।       तेने बह्म हदा य आदिकवये मुह्मन्ति यत्सूरयः। तेजो वारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा।  धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्य परं धीमहि॥


तन्त्रम्-   आचारमूला जातिः स्यादाचारः शास्त्रमूलकः।

             वेदवाक्य शास्त्रमूलं वेदः साधकमूलकः॥

              साधकश्च क्रियामूलः क्रियापि फलमूलिका।

              फलमूलं सुखं देवि सुखमानन्दमूल कम्॥


यदि समयभाव हो तो 108 बार गायत्री मंत्र का जप करें।


2.देवयज्ञ:

अपने इष्ट देव की उपासना के लिए परबह्म  के निमित्त अग्नि में किये हवन को देवयज्ञ कहते हैं।  

   

                 यत्करोषि यदव्श्रासि यज्जुहोसि ददासि यत्।
                 यत्तपस्यात्ति कौन्र्तिय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥  गीता “9/21।“


भगवान् के इस वचन से सिद्ध होता है कि परबह्म परमात्मा ही समस्त यज्ञों के आश्रयभूत हैं। नित्य और नैमित्तिक-भेद से देवता दो  भागों में विभक्त है। उनमें रुद्र गण, वसुगण और इन्द्रादि नित्य देवता कहे जाते है। और ग्रामदेवता, वनदेवता तथा गृहदेवता आदि नैनित्रिक देवता कहे जाते हैं। दोनों तरह के ही देवता इस यज्ञ से तृप्त होते है। जिन  देवताओं की कृपा से संसार के समस्त कार्यकलाप की भलीभाँति उत्पति और रक्षा होती है। उन देवताओ से उऋण होने के लिए देवयज्ञ करना परमावाश्यक है।

देवयज्ञ से नित्य और नैमित्तिक देवता तृप्त होते है।



3.पितृयज्ञ:-

अर्थामादि नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जाने वाले से स्वरूप यज्ञ को  “पित्तयज्ञ” कहते हैं। सन्मार्ग प्रवर्तक माता-पिता की कृपा से  असन्मार्ग से निवृत्त होकर मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति करना है, फिर धर्म, अर्थ काम और मोक्ष आदि सकल पदार्थो को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है। ऐसे दयालु पित्रोः की तृप्ति के लिए, उनके सम्मान के लिए, अपनी कृतज्ञता के प्रदर्शन तथा उनसे उऋण के लिए पितयज्ञ करना नितान्त आवश्यक है।

पितृयज्ञ से समस्त लोकों की तृप्ति और पितरों की अभिवृद्धि होती है।


4.भूतयज्ञ:-

कृमि, कीट- पतंग, पशु और पक्षी आदि की सेवा को “भूतयज्ञ” कहते हैं। ईश्वर रचित सृष्टि के किसी भी अडग की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अंग की सहायता से समस्त अंगों की सहायता समझी जाती है। अतः “भूतयज्ञ” भी परम धर्म हैं।
प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिए अनेक जीवों को प्रतिदिन क्लेश देता है। क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती।
प्रत्येक मनुष्य के नि:श्वास- प्रश्वास, भोजन – प्राशन, -विहार- संचार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती है। निरामिष भोजन करने वाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण - वियोग होता है।अतः जीवों से उऋण होने के लिए भूतयज्ञ करना आवश्यक है। भूतयज्ञ से कृमि, कीट, पशुपक्षी आदि की तृप्ति होती है।


5.अतिथियज्ञ(मनुष्ययज्ञ):- 

क्षुधा से अत्यन्त पीड़ित मनुष्य के घर आ जाने पर उसकी भोजनादि से की  जानेवाली सेवारूप यज्ञ को  “मनुष्ययज्ञ” कहते है। अतिथि के घर आ जाने पर वह चाहे किसी जाति या किसी भी सम्प्रदाय का हो  पूज्य समझ कर उसकी समुचित पूजा कर उसे अन्नादि देना चाहिए।


प्रथमावस्था में मनुष्य अपने शरीर मात्र के सुख से अपने को सुखी समझता है। फिर पुत्र, कलत, मित्रादि को सुखी देखकर सुखी होता है। तदनन्तर स्वदेशवासियों को सुखी देखकर सुखी होता है। इसके बाद पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर वह समस्त लोक समूह को सुखी देखकर सुखी होता है। परन्तु वर्तमान समय में एक मनुष्य समस्त प्राणियों की सेवा नहीं कर सकता, इसलिए यथा शक्ति अन्नदान प्राणियों की सेवा नहीं कर सकता इसलिए यथाशक्ति अन्नदान द्वारा मनुष्य मात्र की सेवा करना ही “मनुष्ययज्ञ” कहा जाता है।
मनुष्ययज्ञ से धन, आयु यश और स्वर्गदि की प्राप्ति होती है। 


उपसंहार-

इस विषय( पंच महा यज्ञ) का ज्ञान अध्यय करने के बाद जो आत्मज्ञान और कर्मकाण्ड में उद्धृत पंच महायज्ञ से अवगत होने से  सनातन धर्म में रुचि बडी व अत्यन्त ज्ञान की प्राप्ति हुई।


सनातन परम्परा के आचार्यो ने गृहस्थ जीवन सुखमय एवं उत्तरोत्तर विकासशील हो इसके लिये पंचमहायज्ञ का विधान बताया है। जिस गृहस्थ के द्वारा उसके दैनन्दिनी जीवन में पंच महायज्ञ कर्म किया जाता है । उसका सर्वदा ही कल्याण होता है। ऐसा पूर्वचार्यो ने प्रतिपादित किया है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने दैनिक जीवन में कृत्य जिन कर्मो का शास्त्रों में उल्लेख किया है - उसे मानव यदि अपने जीवन में अपना ले तो उसका सर्वतोमुखी विकास हो सकेगा। अतः इस इकाई के अध्यय के पश्चात् आप प्रातः कालीन नित्य कर्म विधि का विधिवत करें तथा मैरे जीवन में पूरी कोशिश  रहेगी उतारने की और अध्ययन की कि कैसे हम सकल हो।




श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यज्ञ- स्वरूप- 


पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप

गीता के अनुसार यज्ञ क्या है :-

               गीता में यज्ञ के बारे में यज्ञ का कथन अनेक अन्य अध्यायो में बताया गया है। परन्तु मेरे अध्यन व थोडी खोज बीन की सहायता से मुझे ज्ञान हुआ –

श्रीमद् भागवत् गीता के यथारूप पुस्तक में भगवान कृष्ण अर्जुन को यज्ञ कर्म के बारे में बतलाते है। “ अध्याय तीन”  “कर्मयोग" अध्यय में मुख्यतः श्लोक  9 से 16 तक यज्ञ की महिमा अर्नुज को भगवान कृष्ण जी बनलाते हैं।


तथा यज्ञ ही अविनाशी सत् है जिसे विष्णु जी स्वरूप माना जाता है। भगवान् ने गीता के अध्याय 9 के 16 वें श्लोक मे  “अपना ही स्वरूप बताया है।"


तथा “अहं हि सर्व यज्ञानां भोक्ता च प्रभुत्वे च”। 9/24 में समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभुत्व ( स्वामी ) मैं ही हूँ। 


उपरोक्त कथित भगवत् गीता के  तृतीय अध्याय के  श्लोक 9 से यज्ञ के बारे में,यज्ञ करने के लिये अर्जुन को कहते हैं। - और पूछते हैं। -

*आम तौर पर देखे जाने वाले यज्ञ क्या वह यही है ?

* हवनकुंड जिसमें मत्रोंच्यारण के द्वारा आहुति डाली जाती है ?

* यज्ञ कुण्ड प्रज्वलित आहुति द्वारा देवताओं को प्रसन्न करते है?

* या फिर भगवान किसी और यज्ञ और यज्ञ कर्म के बारे में बात कर रहे है –


तथा मैं निम्नलिखित श्रीमद् भगवद् गीता के वह श्लोको को यथा स्वरूप लिखने का प्रयास करने जा रहा हूं। 


यज्ञार्थात्कर्मण ऽयन्त्र लोकोड्यं कर्मबन्धनः
तदर्भ कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग समाचर॥९॥


अर्थ - श्री विष्णु के लिए यज्ञ रुप में कर्म करना चाहिए अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है अतः हे कुन्ती पुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियम कर्म करो इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे।

 

व्याख्या तात्पर्य- चूँकि मनुष्य को शरीर के निर्वाह के लिए भी कर्म करना होता है। अतः विशष्ट सामाजिक स्थिति तथा गुण को ध्यान में रखकर नियन कर्म इस तरह बनाये गये हैं कि उस उदेश्य की पूर्ति हो सके। यज्ञ का अर्थ भगवान् विष्णु हैं। सारे यज्ञ भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए है। वेदों का आदेश है – यज्ञो वै विष्णुः। दूसरे शब्दों में, चाहे को निर्दिष्ट यज्ञ सम्पत्र करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान् विष्णु की सेवा करें। दोनों से एक ही प्रयोजन सिद्ध होता है अतः जैसा कि इस श्लोक में संस्तुत किया गया है, कृष्ण भावना मृतयज्ञ ही है। वर्णाश्रम धर्म का भी उदेश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है। भगवान यहाँ अर्जुन से कह रहे हैं कि सिर्फ यज्ञ के लिए किए जाने वाले कर्मो से ही तुम कर्म बन्धन से मुक्त हो सकते हो।

                      यज्ञ ही अविनाशी सत् है जिसे विष्णु स्वरूप भी माना जाता हैं।

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।। (भगवद्गीता9/16)


यह श्लोक भगवत गीता के अध्याय 9 में 16 में यज्ञ को अपना ही स्वरूप बताया है।-


अर्थ- मैं ही कर्मकाण्ड मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औपधि दिव्य ध्वनि मन्त्र, घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।


अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्वेनातश्च्यवन्ति ते॥9/24॥


पूर्ववत् के अनुसार में ही विष्णु जी कहते है समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ। अतः जो लोग मेरे  वास्तविक दृिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिरजाते है।


पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप



सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥३.१०।।


अर्थ- सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की सन्ततियों को  रचा और उनसे कहा-“ तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुन्हें सुख पूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त  वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी”।


व्याख्या तात्पर्य- प्राणियों के स्वामी विष्णु द्वारा भौतिक सृष्टि की रचना बद्धजीवों के लिए भगवद्धाम वापस जाने का शुअवसर है। इस सृष्टि के सारे जीव प्रकृति द्वारा बद्ध है अर्जुन से यज्ञ कर्म की उत्पत्ति और इसके फल के विषय में कहा हैं। भगवान कहते है कि यज्ञ अर्थात् अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु किए जाने वाला कर्म योग सृष्टि के आदि से हैं। इसकी  उत्पत्ति तब से है जब से अविनाशी परम सत् ने समस्त प्राणियों सहित इस संसार की रचना की थी।


कृष्णवणंर्त्विषाकृष्ण सांगोपांगास्त्रपार्षदम्।
यज्ञैः संकीर्तन प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः॥


“ इस कलि युग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान है वे भगवान् की उनके पार्षदो सहित संकीर्तन यज्ञ द्वारा पूजा करेगे”। वेदों में वर्णित अन्ययज्ञों को इस कलिकाल में कर पाना सहज नहीं किन्तु संकीर्तन यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है।"


देवाताओं का यज्ञ के द्वारा उन्नयन वासुदेव जी अगले श्लोक में  देवताओं की बात करते है। वो कहते हैं कि देवताओं के साथ मिलकर यज्ञ कर्म करना आवश्यक है और चाहिए।


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३.11॥


अर्थ- यज्ञों  के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्नता का वर देगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सभी को सम्पन्नता प्राप्त होगी।


व्याख्या/ तात्पर्य- हम मनुष्य इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करे। और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करे। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे। देवतागण सांसारिक कार्यो के लिए अधिकार प्राप्त प्रशासक है। प्रत्येक जीव द्वारा शरीरधारण करने के लिए आवश्यक वायु, प्रकाश, जल तथा अन्य सारे वर उन देवताओं के अधिकार में है। जो भगवान् के शरीर के विभिन भागों में असंख्य सहाय कों के रूप में स्थित है। उनकी +( हमारी) प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता मनुष्यों द्वारा यज्ञ की समन्नना निर्भर हैं।

                         यज्ञों को सम्पन्न करने से अन्य लाभ भी होते हैं। जिनसे अन्ततः भव बन्धन से मुक्ति मिल जाती है। यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं। जैसा कि वेदवचन है- आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धिः सत्व शुद्धौं ध्रुवा स्मृतिः स्मृति लम्भे सर्वग्रंथानां विप्रमोक्षः। यज्ञ से मनुष्य के खाद्य पदार्थ शुद्ध होते है। और शुद्ध भोजन करने से मनुष्य जीवन शुद्ध हो जाता है। जीवन शुद्ध होने से स्मृति के सूक्ष्म- तन्तु शुद्ध होते है और तन्क्षुओ के शुद्ध होने पर मनुष्य मुक्ति मार्ग का चिन्तन कर सकता है और ये सब मिलकर कृष्ण भावना मृत तक पहुँचाने है जो आज के समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। 


इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।


अर्थ - जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी ( मनुष्य/ हमारी) सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगे। किन्तु जो इन उपहारों को देवताओँ को अर्पित किये बिना भोगता है। वह निश्चित रूप से चोर है।


व्याख्या/ तात्पर्य- देवता गण भगवान् विष्णु द्वारा भोग- सामग्री प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गये है।अतः नियम यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चाहिए वेदों में विभिन्न देवताओं के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के यज्ञों की संस्तुति है। किन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अर्पित किये जाते हैं। किन्तु जो यह नही समझ सकता कि भगवन् क्या है उनके लिए देवयज्ञ का विधान हैं।


अनुष्ठानकर्ता के भौतिक गुणों के अनुसार वेदों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है। विभिन्न देवताओं की पूजा भी उसी आधार पर अर्थात् गुणों के अनुसार की जाती है। उदाहरणार्थं मांसाहारियों को देवी काली की पूजा करने के लिए कहा जाता है। जो भौतिक प्रकृति की सौर रूपा है और देवी की समक्ष पशुबलि का आदेश हैं। किन्तु जो सतोगुणी हैं उनके लिए विष्णु जी की दिव्य पूजा बताई जाती है। सामान्य व्यक्तियो के लिए कम से कम पाँच यज्ञ आवश्यक हैं जिन्हें “ पञ्च महायज्ञ” कहते है।


किन्तु मनुष्य को यह जानना चाहिए कि जीवन की सारी आवश्यकताऍ भगवान् के देवता प्रतिनिधियों द्वारा ही पूरी की जाती है। कोई कुछ बना नहीं सकता। उदाहरणार्थं- मानव समाज के भोज्य पदार्थो  को लें। इन भोज्य पदार्थो में शाकाहारीयों के लिए अन्न, फल, साग, दूध चीनी आदि हैं तथा मांसाहारियों  के लिए मांसादि जिनमें से कोई भी पदार्थ मनुष्य नहीं बना सकता। तथा ऊष्मा, प्रकाश, जल, वायु, आदि जो जीवन के लिए आवश्यक है।


श्रीमद्भगवत् गीता के अध्याय के 3 के श्लोक संख्या जो पूर्ववत् 11 और12 में कृष्ण जी यह कह रहे है कि मनुष्य हम यज्ञ कर्म के द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण हमारी उन्नति करेंगे। इस प्रकार परस्पर यानि देवजागण और शरीर धारी पुरुष दोनों ही उन्नति करेंगे और इस प्रकार यज्ञ कर्म करने से हम मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त होंगे।


यज्ञ कर्म स्वार्थ के लिए नही अपितु- भगवान कहते है कि यज्ञ कर्म अथति अविनाशी परम सत् की प्राप्ति के लिए कर्म को सिर्फ अपने तक सीमित मत रखो बल्कि अपने से जितना हो सके ज्ञान का प्रचार सगुणता में लगो व फैलाओ।


एक प्रश्न यहाँ बार-बार मैरे मन मे उत्पन्न हो रह है। कि वह किस प्रकार के देवता है? देवता कौन है? 

अर्थ- देव जिस धातु से उत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ होता है। प्रकाशमाना देवता शब्द में तल् प्रत्यय लग जाने से इसका अर्थ होता है कि जो देता है वही देवता है।


मेरी अज्ञानता के कारण मेरे मन में इस पंक्ति को लिखते- यह धारण प्रश्न उत्पन्न हुआ देवता ही क्यों?
उत्तर में मुझे प्राप्त हुआ- देवता एक परमात्मा या परमेश्वर है जो सभी जीवन को सम्भालता है नियंत्रित करता है और सभी सृष्टियों की शक्ति है। और इस शब्द का प्रयोग विभिन्न धर्मो और संस्कृतियों में होता है जिसमें सभी धर्म शामिल है।


श्रीमद्भगवतगीता के अनुसार चोर व पापी व्यक्ति:-


यक्षशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
           भुञ्जते ते त्वध पापा ये पचन्त्यात्मकारणाम्॥13॥


अर्थ- भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापो से मुक्तः हो जाते है क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद ) को ही खाते हैं। अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय सुख के लिए भोजन बनाते है। वे निशिचत रुप से पाप के भोगी है।


व्याख्या तात्पर्य- भगवद भक्तों या कृष्ण भावना पुरुषों को सन्त कहा जाता है वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहते है। जैसा कि बह्मसाहित में प्रेमाञ्जनरहरित भक्ति विलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। ऐसे भक्त पृथक- पृथक भवित साधनों के द्वारा यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करने रहते है। जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमयी संगति के कल्मष से दूर रहते है। अन्य लोग जो अपने लिए या इन्द्रि यतृप्ति के लिए भोजन  बनाते हैं। वे न केवल चोर है।  अपितु सभी प्रकार के पापो को खाने वाले है जो व्यक्ति चोर तथा पापी दोनों हो, भले ही वह किसी तरह सुखी रह सकता है? यह सम्भव नहीं। अतः सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यों को पूर्ण कृष्ण- भावना मृत में संकीर्तन- यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए। अन्यथा संसार में शक्ति या सुख नही हो सकता।


गीता में सृष्टि के चक्र का तप यज्ञ सिद्धान्त-


 अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥3.14।।


अर्थ - सारे प्राणि अन्न पर आश्रित है, जो वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षायज्ञ सम्पन्न करने से होती है। और यज्ञ नियत कर्मो से उत्पन्न होता है।


व्याख्या तात्पर्य - सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। भगवान इन श्लोक में अर्जुन को सृष्टि में  पदार्थो के उत्पन्न होने के चक्र के बारे में बता रहे है। भगवान कहते हैं। कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। क्योकि हम जो भी अन्न खाते हैं उससे हमारे शरीर का पोषण होता है और रक्त और वीर्य आदि की वृद्धि होती है। वीर्य और अंडज के संयोग से प्राणियों का जन्म होता है।


भगवान कहते है। कि यह अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा का जल समुद्र से आता है। समुद्र के देवता वरुण है। सूर्य वरुण देव से जल लेकर उसे शोषित कर लेते हैं और मेघो से संचित  कर देते है मेघ के देवता इंद्र है। इसलिए वर्षा अविनाशी सत् के छोटे बडे अंश देवताओं के द्वारा किए जाते हैं।


यज्ञ में ब्रह्म –

                   कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
  तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥3.15।।


अर्थ- वेदों में नियमित कर्मो का विधान है और ये वेद साक्षात् श्री भगवन्(परब्रह्म) से प्रकट हुए है। फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ कर्मो में सदा स्थित रहता है।


व्याख्या तात्पर्य- यदि हमें यज्ञ पुरुष विष्णु के परितोष के लिए कर्म करना है तो हमें ब्रह्म या दिव्य वेदों से कर्म की दिशा प्राप्त करनी होगी। अतः सारे वेद कर्मा देशों की  संहिताऍ। वेदों के निर्देश के बिना किया गया कोई भी कर्म विकर्म या अवैध अथवा पापपूर्ण कर्म कहलाता है। अतः कर्म फल से बचने के लिए सदैव वेदो से निर्देश प्राप्त करना चाहिए। जिस प्रकार सामान्य जीवन में राज्य के निर्देश के अन्तर्गत कार्य करना होता है। उसी प्रकार भगवान् के परम राज्य के निर्दिशन् में कार्य करना चाहिए। ब्रह्म शब्द से प्रकृति परिणाम स्वरूप शरीर निर्दिष्ट है ब्रह्म शब्द से प्रकृति से निर्देश किया गया है। गीता के अध्याय 14 के श्लोक 3 में भगवान कहते हैं।–“ ममयोनिर्महदब्रह्म”। कि त्रैगुणात्मक प्रकृति के परिणाम से शरीर उत्पन्न होता है। इसमें शरीर के लिए भगवान ने यहाँ यज्ञ ब्रह्म शब्द का उल्लेख किया है।


भगवान वासुदेव ने पिछले उपरोक्त श्लोकों में यह बताया है कि अविनाशी सत् और उससे उत्पन्न त्रैगुणात्मक माया केआवरणों के द्वारा संचारित इस सृष्टि का एक  विशेष चक्र है। अर्जुन उस अविनाशी सत् के वृहद अंश के प्रति किए गए कर्मो(यज्ञ कर्मो) से ही तुम्हारी मुक्ति संभव है। भगवान कहते है। - हे पार्थ !  जो इस प्रकार प्रचलित चक्र के अनुसार नही चलता है। वह इंद्रियों में रमण करने वाला यानी विषय भागो में रत रहने वाला पापी मनुष्य की जीवनी व्यर्थ ही जीवन व व्यतीत कर रहा है।


पञ्चमहायज्ञ और श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित यज्ञ-स्वरूप


   एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥3.16।।


अर्थ- उपरोक्त में कथित भगवान कृष्ण कहते है- हे प्रिय अर्जुना ! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ चक्र का पालन नही करता वह निश्चित ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तृष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।


व्याख्या तात्पर्य- जो लोग इस संसार में भोग करना चाहते है उन्हें उपयुक्त यज्ञ- चक्र का अनुसरण करना परमावश्य है। जो ऐसे विधिविधानों का पालन नहीं करना। अधिकाधिक तिरस्कृत होने के कारण उसका जीवन अत्यंत संकटपूर्ण रहता है। प्रकृति के नियमानुसार यह मानवशरीर विशेष रूप से आत्म – साक्षात्कार के लिए मिला है। जिसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, या  भक्तियोग में से किसी एक विधि से प्राप्त किया जा सकता है। इन योगियों के लिए यज्ञ सम्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि ये पाप-पुण्य से परे होते है। किन्तु जो लोग इन्द्रियतृप्ति में जुटे हुए है उन्हे पूर्वोक्त यज्ञ - चक्र के द्वारा शुद्धिकरण की आवश्यकता रहती है।  कर्म के अनेक भेद होते हैं। जो लोग कृष्ण भावना भक्ति नहीं है वे निश्चय ही विषय - परायण होते है। अतः उन्हें पुण्यकर्म करने की आवश्यकता होती है।  यज्ञ पद्धति इस प्रकार सुनियोजित है कि विषयोन्मुख लोग विषयो के फल मे फंसे बिना अपनी अच्छाओ की पूर्ति कर सकते है। संसार की सम्पन्नता हमारे प्रयासों पर नहीं अपितु परमेश्वर की पृष्ठभूमि- योजना पर निर्भर है। जिसे देवता सम्पादित करते हैं। अतः वेदों में वर्णित देवताओ को लक्षित करके यज्ञ किये जाते है। अप्रत्यक्ष रूप में यह कृष्ण भावना मृत का ही अभ्यास रहता है। क्योंकि जब कोई इन यज्ञों में दक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही कृष्ण भावना भक्ति हो जाता है। किन्तु यदि ऐसे यज्ञ करने से कोई कृष्ण भावना  भक्ति नहीं हो पाता तो इसे कोरी आचार संहिसा समझना चाहिए। अतः मनुष्यों को चाहिए कि वे आचार संहिता तक ही अपनी प्रगति को सीमित न करे अपितु उस पर करके कृष्ण भावना मृत को प्राप्त हैं।


सम्पूर्ण विषय उपसंहार:- 

उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वेदों में विभिन्न स्थानों पर यज्ञ की महिमा का गुणमान किया गया है। वेदादि समस्त भारतीय साहित्यों का आधार है तथा वेद में यज्ञ का विशद वर्णन मिलता है।“पंचमहायज्ञ” श्रीमदभगवदगीता में वर्णित यज्ञ – स्वरूप”उसमें से एक भाग महत्वपूर्ण भाग है। मानव जीवन प्रधान रूप में दो प्रकार की कामनाएँ होती है। पहली अभष्टि प्राप्ति और दूसरी अनिष्ट से निवृत्त। अन्य शब्दो में इन्ही को अभ्युदय व निःश्रेयस कहा जा सकता है। इस प्रकार चाहे किसी भी प्रकार का भौतिक लाभ हो या अध्यात्मिक लाभ हो सभी की प्राप्ति का एक सशक्त साधन यज्ञ है।यज्ञ में परमार्थ परायणता का भी रहस्य समाया हुआ है। अतः विश्व कल्याण का शुभ कार्य भी यज्ञ द्वारा संभव होता है। जिससे मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष भी सुलभ हो पाता है।


BIBLIOGRAPHY
ग्रन्थसूची/ग्रंथवृत्त


पुस्तके तथा ग्रंथ:

• संस्कार – विधिः

• नित्यकर्म - पूजाप्रकाश

• श्रीमद्भगवद्गीता




इन्हें भी देखें।:-



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