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आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रम

ब्रह्मचर्य | ब्रह्मचर्य के नियम | ब्रह्मचर्य के नुकसान | एक महीने का ब्रह्मचर्य | ब्रह्मचर्य क्या है


           वास्तवमें देखनेपर तो दूसरे सभी व्रत एक सत्यके व्रतमेंसे ही उत्पन्न होते हैं और उसीके लिए उनका अस्तित्व है । जिस मनुष्यने सत्यको वरण किया है, उसीकी उपासना करता है, वह दूसरी किसी भी वस्तुकी आराधना करे तो व्यभिचारी बन जाता है । फिर विकारकी आराधनाकी तो बात ही कहां उठ सकती है ? जिसकी कुल प्रवृत्तियां सत्यके दर्शनके लिए हैं, वह संतानोत्पत्तिके काममें या घर-गिरस्ती चलाने के झगड़े में पड़ ही कैसे सकता है ? भोगविलासद्वाराकिसीको सत्य प्राप्त होनेकी आजतक हमारे सामने एक भी मिसाल नहीं है ।

आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रम | ब्रह्मचर्य | ब्रह्मचर्य के नियम | ब्रह्मचर्य के नुकसान | एक महीने का ब्रह्मचर्य | ब्रह्मचर्य क्या है


       अथवा अहिंसाके पालनको लें तो उसका पूरा पालन ब्रह्मचर्यके बिना असाध्य है । अहिंसा अर्थात् सर्वव्यापी प्रेम । जहां पुरुषने एक स्त्रीको या स्त्रीने एक पुरुषको अपना प्रेम सौंप दिया वहां उसके पास दूसरेके लिए क्या बच रहा ? इसका अर्थ ही यह हुआ कि 'हम दो पहले और दूसरे सब बादको ।' पतिव्रता स्त्री पुरुषके लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्रीके लिए सर्वस्व होमनेको तैयार होगा । अतः यह स्पष्ट है कि उससे सर्वव्यापी प्रेमका पालन नहीं हो सकता । वह सारी सृष्टिको अपना कुटुंब नहीं बना सकता, क्योंकि उसके पास 'अपना' माना हुआ एक कुटुंब मौजूद है या तैयार हो रहा है। उसकी जितनी वृद्धि, उतना ही सर्वव्यापी प्रेममें विक्षेप होता है । इसके उदाहरण हम सारे संसारमें देख रहे हैं । इस- लिए अहिंसा व्रतका पालन करनेवाले से विवाह नहीं बन सकता, विवाहके बाहरके विकारकी तो बात ही क्या ?

है वह गवाही दे सकता है। आज तो इस प्रयोगकी सफलता सिद्ध हुई कही जा सकती है। विवाहित स्त्री-पुरुष एक दूसरेको भाई-बहन मानने लग जाये तो सारे झगड़ोंसे वे मुक्त हो जाते हैं । संसारभरकी सारी स्त्रियां बहनें हैं, माताएं हैं, लड़कियां हैं-- यह विचार ही मनुष्यको एकदम ऊंचा ले जाने वाला, बंधनमेंसे मुक्ति देनेवाला हो जाता है। इसमें पति- पत्नी कुछ खोते नहीं, वरन् अपनी पूंजीमें वृद्धि करते हैं, कुटुंब बढ़ाते हैं । विकाररूपी मैल निकलनेसे प्रेम भी बढ़ता है । विकारोंके जानेसे एक-दूसरेकी सेवा अधिक अच्छी हो सकती है, एक-दूसरे के बीच कलहके अवसर कम होते हैं। जहां स्वार्थी, एकांगी प्रेम है, वहां कलहके लिए ज्यादा गुंजाइश रहती है।


     इस प्रधान विचारके समझ लेने और उसके हृदयमें बैठ जानेके बाद ब्रह्मचर्यसे होनेवाले शारीरिक लाभ, वीर्यलाभ आदि बहुत गौण हो जाते हैं । जान- बूझकर भोग-विलासके लिए वीर्य खोना और शरीरको निचोड़ना कितनी बड़ी मूर्खता है । वीर्यका उपयोग दोनोंकी शारीरिक और मानसिक शक्तिको बढ़ाने के लिए है । उसका विषय-भोगमें उपयोग करना यह उसका अति दुरुपयोग है । इस दुरुपयोगके कारण वह बहुतेरे रोगोंकी जड़ बन जाता है ।


    ऐसे ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और कर्म तीनोंसे होना चाहिए । व्रतमात्रके विषयमें यही बात समझनी चाहिए। हम गीतामें पढ़ते हैं कि जो शरीर को तो वशमें रखता हुआ जान पड़ता है, पर मनसे विकारका पोषण किया करता है, वह मूढ़ मिथ्याचारी है । सबका यह अनुभव है कि मनको विकारी रहने देकर शरीरको दबानेकी कोशिश करनेमें हानि ही है। जहां मन होता है वहां शरीर अंतमें घसिटाए बिना नहीं रहता। यहां एक भेद समझ लेना जरूरी है । मनको विकारवश होने देना एक बात है, मनका अपने आप, अनिच्छासे, बलात्कारसे विकारको प्राप्त हो जाना या होते रहना दूसरी बात है । इस विकारमें यदि हम सहायक न बनें तो अंतमें जीत ही है । हमारा प्रतिपलका यह अनुभव है कि शरीर काबूमें रहता है, पर मन नहीं रहता। इसलिए शरीरको तो तुरंत ही वशमें करके मनको वशमें करने का हम सतत प्रयत्न करते रहें तो हमने अपना कर्त्तव्य पालन कर लिया। हमारे, मनके अधीन होते ही, शरीर और मनमें विरोध खड़ा हो जाता है, मिथ्याचारका आरंभ हो जाता है । पर जहांत क मनोविकारको दबाते ही रहते हैं वहांतक दोनों साथ जानेवाले हैं, ऐसा कह सकते हैं ।


         इस ब्रह्मचर्य का पालन बहुत कठिन, करीब- करीब असंभव माना गया है। इसके कारणको खोज करनेसे मालूम होता है कि ब्रह्मचर्यको संकुचित अर्थ में लिया गया है । जननेंद्रिय-विकारके निरोधभरको हो ब्रह्मचर्य का पालन मान लिया गया है। मेरे खयाल में यह व्याख्या अधूरी और गलत है। विषयमात्रका निरोध ही ब्रह्मचर्य है । निस्संदेह, जो अन्य इंद्रियों को जहां-तहां भटकने देकर एक ही इंद्रियको रोकनेका प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है । कानसे विकारी बातें सुनना, आंखसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तु देखना, जीभसे विकारोत्तेजक वस्तुका स्वाद लेना, हाथसे विकारोंको उभारनेवाली चीजको छना और फिर भी जननेंद्रियको रोकनेका इरादा रखना तो आगमें हाथ डालकर जलनेसे बचनेके प्रयत्नके समान है । इसलिए जननेंद्रियको रोकनेका निश्चय करने- वालेके लिए इंद्रियमात्रका, उनके विकारोंसे रोकने का निश्चय होना ही चाहिए। यह मुझे हमेशा लगता रहा है कि ब्रह्मचर्यकी संकुचित व्याख्यासे नुकसान हुआ है । मेरा तो यह निश्चित मत और अनुभव है कि यदि हम सब इंद्रियोंको एक साथ वशमें करनेका अभ्यास डालें तो जननेंद्रियको वशमें रखनेका प्रयत्न तुरंत सफल हो सकता है । इसमें मुख्य स्वादेंद्रिय - है और इसीलिए व्रतोंमें उसके संयमको हमने पृथक् स्थान दिया है।


ब्रह्मचर्य के मूल अर्थको सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्मकी-- सत्यकी— शोधमें चर्या, अर्थात् तत्-संबंधी आचार । इस मूल अर्थमेंसे सर्वेन्द्रिय-संयम-रूपी विशेष अर्थ निकलता है । केवल जननेंद्रिय-संयमरूपी अधूरे अर्थको तो हमें भूल जाना चाहिए।


आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रम


"विस्तारपूर्वक"


ब्रह्मचारी:-

*ब्रह्मचारी वह है जिसके लिए ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म ही समिध और अग्नि है। स्वयं ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म ही जल और ब्रह्म ही गुरू है। ब्रह्मचारी ब्रह्म में ही लीन रहता है, इनी धारणाओं और मान्यताओं के साथ ब्रह्मचर्य कहलाता है, और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को ब्रह्मचारी कहा जाता है।*


ब्रह्मैव समिधस्तस्य ब्रह्माग्नि द्वासम्भवः ।
आपो ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म स ब्रह्मणि समाहितः ।
एतदेवेदृश सूक्ष्मं ब्रह्मचर्य विदुर्बुधाः ।। ( महाभारत आश्वमेधिकपर्व 26.17-18)

वही ब्रह्मचारी है जो सदैव गुरू की सेवा में व्यस्त रहता है और संयमित जीवन जीता है।


ये गुरून् पर्युपासन्ते नियताः ब्रह्मचारिणः । (महाभारत शान्ति पर्व 192/4 )


*महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में ब्रह्मचारी के लक्षण बताते हुए भी यह कहा गया है कि वह मूँज की मेखला धारण करे, जटायें धारण करे, नित्य स्नान और सन्ध्यावन्दन करे, यज्ञोपवीत धारण करे, स्वाध्याय करे, निर्लोभी हो, व्रतों का नित्यप्रति पालन करें, दण्ड और मृगचर्म धारण करें, और भिक्षाचरण करे।*


दण्डाजिनोपवीतानि मेखलां चैव धारयेत् ।
ब्राह्मणेषु चरेद् भैक्षमनिन्द्येष्वात्मवृत्तये ।। (यज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याये 29 )

 
मेखला च भवेत्मौंजी जटी नित्योदकस्तथा ।
यज्ञोपवीति स्वाध्यायी अलुब्धो नियतव्रतः । (म. भा. आश्वमे पर्व, 46 / 6)


*इन सभी कार्यों को करते हुए, ब्रह्मचारी गुरु की सेवा करता और ज्ञान प्राप्ति का अभ्यास करता था। उसकी दिनचर्या बहुत ही अनुशासित और संयमित थी। भिक्षाटन, गुरुसेवा, अध्ययन, शयन, समिधा संग्रह से लेकर स्वाध्याय तक के लिए समय निर्धारित रहता था। कहा जाता है कि जो निष्ठावान शिष्य प्रातः-सायं यज्ञ की सामग्री एकत्रित करता और गुरुकुल के समस्त निर्धारित कार्यों को नियमत रूप से करता, उसे ज्ञान प्राप्ति अवश्य होती थी। ब्रह्मचारी के जीवन को बहुत ही महत्वपूर्ण और आदरणीय रूप में माना गया था।*


यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मचर्यमिदं स्मृतम् (म.भा. शाप 214.71)


ब्रह्मचर्य के चार चरण:-


महाभारत के उद्योगपर्व में ब्रह्मचर्य के चार चरण शिष्य को गुरुभक्ति की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। और महाभारत के शान्तिपर्व में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिष्य को अपनी आयु के चौथाई भाग को गुरुकुल में ब्रह्मचारी के रूप में गुजारना चाहिए। गुरुकुल में निवास करते समय उन्हें किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए। वे धर्म और अर्थ के पुरुषार्थ को समझने का प्रयास करें, और गुरू तथा गुरूपुत्र की सेवा करें।


आयुषस्तु चतुर्भाग ब्रहाचार्यनसूयकः ।
गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद् धर्मार्थकोविदः । महाभारत शान्तिपर्व 252-16)


*ब्रह्मचर्य के चार चरण निम्नलिखित हैं -


प्रथम चरण में, शिष्य को नित्य गुरु का आदर्श्वादन करना चाहिए। शिष्य को नित्य स्वाध्याय करना चाहिए, अहंकार को त्यागना चाहिए, और मन को शान्त और संयमित रखना चाहिए।*


गुरु शिष्यो नित्यमभिवादयीत स्वाध्यायमिच्छेच्छुचिरप्रमत्तः। मानं न कुर्यान्नादधीतरोष-मेष प्रथमो ब्रह्मचर्यस्य पादः ।। शिष्यवृत्तिक्रमेणैव विद्यामाप्नोति यः शुचिः । ब्रह्मचर्यव्रतस्यास्य प्रथमः पाद उच्यते ।। (महा. उ.प. 44.10-11 )


द्वितीय चरण में, शिष्य को अपने मन, कर्म, वचन, प्राणों और धन से गुरु के हित में काम करना चाहिए। यहां पर गुरु से तात्पर्य गुरु के परिवार से भी होता है। शिष्य को गुरु, गुरुमाता, गुरुभाई या गुरुबहिन का सम्मान करना चाहिए।


आचार्यस्य प्रियं कुर्यात् प्राणैरपि धनैरपि।
कर्मणा मनसा वाचा द्वितीयः पाद उच्यते ।। (महा. उ.प. 44-12)


तृतीय चरण:- तृतीय चरण में, शिष्य को गुरु द्वारा किए जाने वाले कार्यों का ध्यान देना और उनका समर्थन करना चाहिए। उन्हें प्रसन्नचित होकर देखना चाहिए और सदैव याद रखना चाहिए कि गुरु ही है जो मुझे नित्य उन्नति की ओर बढ़ा रहे हैं। मेरे समृद्धि का स्रोत गुरु ही है। यह तीसरा चरण ब्रह्मचर्य का होता है।


आचार्येणात्मकृतं विजानन् ज्ञात्वा चार्थं भावितोऽस्मीत्यनेन।
यन्मन्ते तं प्रति हृष्टबुद्धिः स वै तृतीयो ब्रह्मचर्यस्य पादः ।। महा. 5.9.44.14


चतुर्थ चरण :-चतुर्थ चरण में, शिक्षा प्राप्ति के बाद आचार्य को दक्षिणा दिए बिना कभी भी गुरुकुल छोड़ना नहीं चाहिए। दक्षिणा केवल गुरु के सम्मान के रूप में होती है, और इसलिए उसे चुपचाप देना चाहिए, बिना किसी कथन के।


नाचार्य स्थानपाकृत्य प्रवासं प्राज्ञः कुर्वीत नैतदहं करोमि । इतीव मन्यते न भाषयेत् स वै चतुर्थी ब्रह्मचर्यस्य पादः (महा. उ.प. 44.15)


इस प्रकार ब्रह्मचर्य के चार चरण बताए गए हैं।


ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश की विधि:-


ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश के लिए शिष्य को उपनयन संस्कार के बाद संस्कृत भाषा में पाठशाला जानी होती है। उपनयन संस्कार का आयोजन उस उम्र में किया जाता है, जो उसके वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के अनुसार निर्धारित होता है - ब्राह्मण के लिए आठवें वर्ष में, क्षत्रिय के लिए ग्यारहवें वर्ष में, और वैश्य के लिए बारहवें वर्ष में। इसके बाद, शिष्य गुरु के पास जाकर ब्रह्मचर्य जीवन की शिक्षा प्राप्त करता है।


गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् ।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भस्तु द्वादशे विशः । (मनुस्मृति 2 / 36 )


उपनयन संस्कार के पश्चात्, शिष्य को सर्वप्रथम गुरु द्वारा अशौच का ज्ञान दिलाया जाता है। उसे आचार व्यवहार, अग्निसंरक्षण, सन्ध्या-उपासना, शास्त्रों के अनुसार आचमन करने की विधि, अध्ययन के समय ब्रह्मांजलि मुद्रा में बैठने की अभ्यास, हल्के और सादे वस्त्र पहनने का ज्ञान, और इंद्रियों को वश में रखने के तरीके का ज्ञान दिलाया जाता है।


उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः ।
आचारमग्निकार्य च सन्ध्योपासनमेव च।।
अध्येष्यमाणस्त्वाचान्तो यथाशास्त्रमुदमुखः । ब्रह्मांजलि कृतोऽध्याप्यो लघुवासा जितेन्द्रियः । (मनुस्मृति 2/69-70)


ब्रह्मचर्य आश्रम में शिष्य उपनीत होकर प्रवेश करता है, फिर गुरु उसे ब्रह्मचारी के कर्तव्यों और त्याज्य कर्मों का पाठ सिखाते हैं, और वेदादि ज्ञान का प्रारंभ करते हैं।

ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य:-

1. ब्रह्मचारी को अनुशासित और संयमित जीवन जीना चाहिए।

2. गुरू सेवा को उसका प्राथमिक कर्तव्य माना जाता है।

3. यज्ञ हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायित्व उस पर आता है।

4. आचार्य के समस्त कार्यों को अपना समझकर निष्ठापूर्वक पूरा करना चाहिए।

5. ब्रह्मचारी को गुरू के बुलाने पर उसके सामने अध्ययन के लिए तत्पर रूप से पहुंच जाना चाहिए। वह बिना कहे गुरू की सेवा करना, गुरू के जागने से पहले उठना, सोने के बाद सोना चाहिए। ब्रह्मचारी को मृदुभाषी, जितेन्द्रिय, धैर्यशाली, और सतर्क बने रहना चाहिए। वह स्वाध्याय में तत्पर रहना चाहिए। इस तरह के आचरण को उत्कृष्ट माना जाता है।


आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वबोधः पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी ।
मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः स्वाध्यायशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी ।। (आदि पर्व 91 / 2 )


6. ब्रह्मचारी का एक अनिवार्य कर्तव्य भिक्षाटन भी था। इसका मुख्य उद्देश्य था कि वह नम्र रहे और स्वयं को किसी से ऊँचा या नीचा ना समझे। भिक्षा में प्राप्त अन्न को पूरी तरह गुरू को सौंप देना चाहिए, और उसे गुरू के द्वारा दिया गया अन्न प्रसाद मानना चाहिए।


7. ब्रह्मचारी को हमेशा विनम्र रहना चाहिए, वह आध्यात्मिक चिंतन करना चाहिए, गुरू के द्वारा अनुभव किए गए आध्यात्मिक रहस्यों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिए। महाभारत में यह भी कहा गया है कि ब्रह्मचारी को वेदमन्त्रों का जप एकांत में करना चाहिए, अपने गुरू की निष्ठापूर्वक सेवा करना चाहिए, मन और इंद्रियों को वश में रखना चाहिए, दीक्षा के निर्देशों का पालन करना चाहिए, और गुरू के बताए गए कर्तव्यों का अनुसरण करना चाहिए। वह ऐसा आचरण करना चाहिए जो गुरू को पसंद आए।


8. ब्रह्मचारी को अपनी आयु का चौथा भाग गुरुकुल में बिताना चाहिए, और किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए। वह धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को समझने चाहिए, और गुरू और गुरुपुत्र की सेवा करनी चाहिए।


आयुषस्तु चतुर्भागं ब्रहाचार्यनसूयकः ।
गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद् धर्मार्थकोविदः । ( महाभारत शान्तिपर्व 252 / 16)


9. ब्रह्मचर्याश्रम में गुरुकुलनिवास करते हुए शिष्य गुरु की सेवा करके आशीर्वाद प्राप्त करता था, ध्यान और एकाग्रचित्त होकर विद्या प्राप्त करता था, और कई बार तो मोक्ष भी प्राप्त कर लेता था। कुछ ब्रह्मचारी सीधे संन्यासाश्रम में भी प्रवेश कर लिया करते थे।


एतेन ब्रह्मचर्येण देवादेवत्वमाप्नुवत् ।
ऋषयश्च महाभागा ब्रह्मलोकं मनीषिणः ।। ( महाभारत उद्योगपर्व 44 / 10)


"इस रूप में, ब्रह्मचर्य न केवल इस लोक में ही लाभकारक होता है, बल्कि परलोक में कल्याण की दिशा में भी मार्गप्रशस्त होता है। यह एक आदर्श जीवनशैली होती है, जिसमें आध्यात्मिक और भौतिक विकास दोनों पर ध्यान केंद्रित होता है, और व्यक्ति के समग्र भलाइयों के लिए मार्ग का कारक बनता है। इस आदर्श जीवनशैली का पालन करने से, व्यक्ति के न केवल व्यक्तिगत विकास का मार्ग प्रस्तुत होता है, बल्कि समाज के हित में भी योगदान होता है, और व्यक्ति के आध्यात्मिक और भौतिक विकास को प्रोत्साहित किया जाता है।"


ब्रह्मचारी के लिये त्याज्य:-

ब्रह्मचारी के लिए किसी विशेष परिस्थिति के अनुसार कुछ कार्य भी त्याज्य हो सकते हैं, हालांकि हमने पहले कृत्य कर्मों का वर्णन किया है। शास्त्रों में इसी तरह के कार्य भी विवरणित हैं, जो विशेष परिस्थितियों में ब्रह्मचारी के लिए अनुचित माने जाते हैं, जैसे -


अभ्यंगमंजनचक्ष्णोरुपानच्छधारणम् ।
कामं क्रोधं व लोभं च नर्तनं गीतवादनम् ।।
द्यूतं च जनवादं च परीवादं तथाऽनृतम् ।
स्त्रीणां च प्रेक्षणा लम्भमुपघातं परस्य । (मनु. 2 /178-179)


गन्ध, चन्दन लगाना, नेत्रों में अंजन लगाना, जूता पहनना, छाता लेकर चलना, काम, क्रोध, और लोभ से युक्त होना, नृत्य, गायन, वादन करना, द्यूतक्रीडा, समाज की निन्दा या श्लाघा करना, असत्य भाषण करना, स्त्रीयों को देखना, अकारण उन्हें स्पर्श करना, और दूसरों को धोखा देने जैसे कृत्य ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं।"


अध्ययनकाल में शिष्य को आलस्य, निद्रा और तन्द्रा को त्यागना चाहिए। सुख की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। कर्मठ बनना चाहिए। संयमित आचरण रखकर ही वह यथोक्त व्यवहार कर सकता है। महाभारत में भी कहा गया है - सुखार्थी को विद्या कहाँ, विद्यार्थी को सुख कहाँ, सुख की इच्छा है तो विद्या का त्याग करो और विद्या की इच्छा है तो सुख का त्याग करो।"


सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम् ।
सुखार्थ वा त्यजेद् विद्या विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् (उद्योग पर्व 4/6)


ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को मन के कालुष्य को पूर्णतया दूर करना चाहिए और स्वप्नदोष को न देखते हुए निद्रा का पूर्णतया त्याग करना चाहिए।"


निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छता चरितुं सदा ।
निद्रा सर्वात्मना त्याज्या स्वप्नदोषानवेक्षता ।।


ब्रह्मचर्य के लिए भोजन :-

ब्रह्मचारी का यह कर्त्तव्य है कि वह सदैव उत्तम कार्यों की ओर प्रेरित रहे। अपने अध्ययन में किसी भी प्रकार के विघ्नों से बचने का प्रयास करें और अच्छे कार्यों में अपना समय लगाएं। वे कभी भी दुष्कर्म नहीं करने चाहिए। भोग की इच्छा से दूर रहकर, मधु, मांस, गन्ध, माला, चन्दन, रस, स्त्री, मणि, और प्राणी हिंसा से त्याग कर देना चाहिए।"


FAQ

ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें

इंद्रियों को नियंत्रित करें: इंद्रियों को संयमित रूप से उपयोग करें।स्वाध्याय और आध्यात्मिक अध्ययन: आध्यात्मिक अध्ययन करें और आत्मा के साथ जुड़ें।सद्गुरु के मार्गदर्शन में रहें: सद्गुरु के सिखाए गए मार्ग पर चलें और उनके संशोधनों का पालन करें।दुष्कर्म से बचें: किसी भी दुष्कर्म से दूर रहें और नैतिकता का पालन करें।आचार्य की सेवा: आचार्य के सेवा में अपना योगदान दें और उनके उपदेश का पालन करें।

एक महीने का ब्रह्मचर्य

*एक महीने का ब्रह्मचर्य* का अर्थ होता है कि कोई व्यक्ति एक महीने तक अपने शारीरिक और मानसिक इच्छाशक्तियों का संयम और सेलिबेसी का पालन कर रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा के साधना और स्वाध्याय का बढ़ावा देना हो सकता है, और यह धार्मिक अथवा आदर्शिता जीवन का हिस्सा भी हो सकता है।

ब्रह्मचर्य का प्रभाव कितने दिन में दिखता है

ब्रह्मचर्य का प्रभाव व्यक्ति के इच्छाशक्ति और मानसिक स्थिति पर निर्भर कर सकता है, और यह व्यक्ति के प्रयासों पर भी निर्भर करता है। कुछ लोगों को ब्रह्मचर्य के प्रभाव को कुछ ही दिनों में महसूस होता है, जबकि दूसरों को इसमें थोड़ा समय लग सकता है। आमतौर पर, ब्रह्मचर्य के सकारात्मक प्रभाव को आप कुछ हफ्तों या महीनों में अनुभव कर सकते हैं, जब आप इसे सख्तता और नियमितता के साथ पालते हैं। ध्यान और साधना इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ब्रह्मचर्य से दिमाग और शरीर कैसा रहता है

ब्रह्मचर्य का पालन करने से दिमाग और शरीर में कई लाभ हो सकते हैं। यह योग्यता और ध्यान को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है, साथ ही सेक्स के अत्यधिक उपयोग से आने वाले कई स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं से बचाव कर सकता है, जैसे कि शारीरिक और मानसिक तनाव, स्वास्थ्य के साथ जुड़े मुद्दे, और संबंधों की समस्याएं। इससे व्यक्ति की आत्मसमर्पण और आत्मविश्वास भी बढ़ सकते हैं, जिससे उनका सामाजिक और व्यक्तिगत विकास सुधार सकता है।


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गोत्र कितने होते हैं: पूरी जानकारी गोत्र का अर्थ और महत्व गोत्र एक ऐसी परंपरा है जो हिंदू धर्म में प्रचलित है। गोत्र एक परिवार को और उसके सदस्यों को भी एक जीवंत संबंध देता है। गोत्र का अर्थ होता है 'गौतम ऋषि की संतान' या 'गौतम ऋषि के वंशज'। गोत्र के माध्यम से, एक परिवार अपने वंशजों के साथ एकता का आभास करता है और उनके बीच सम्बंध को बनाए रखता है। गोत्र कितने प्रकार के होते हैं हिंदू धर्म में कई प्रकार के गोत्र होते हैं। यहां हम आपको कुछ प्रमुख गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज वशिष्ठ कश्यप अग्निवंशी गौतम भृगु कौशिक पुलस्त्य आत्रेय अंगिरस जमदग्नि विश्वामित्र गोत्रों के महत्वपूर्ण नाम यहां हम आपको कुछ महत्वपूर्ण गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज गोत्र वशिष्ठ गोत्र कश्यप गोत्र अग्निवंशी गोत्र गौतम गोत्र भृगु गोत्र कौशिक गोत्र पुलस्त्य गोत्र आत्रेय गोत्र अंगिरस गोत्र जमदग्नि गोत्र विश्वामित्र गोत्र ब्राह्मण गोत्र लिस्ट यहां हम आपको कुछ ब्राह्मण गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज गोत्र वशिष्ठ गोत्र कश्यप गोत्र भृगु गोत्र आत्रेय गोत्र अंगिरस गोत्र कश्यप गोत्र की कुलदेवी

ब्राह्मण धरोहर | ज्ञान, परंपरा, और समृद्धि की यात्रा

    आपकी पहचान, आपका गर्व है। और ब्राह्मण समुदाय के व्यक्तियों के लिए, इस पहचान को संजीवनी देना और आगे बढ़ाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस ब्लॉग में हम ब्राह्मण वंश की धरोहर की महत्वपूर्णता और ज्ञान के मौल्यों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। ब्राह्मण धरोहर: ज्ञान का विरासत आपकी पहचान, आपका गौरव है। और ब्राह्मण जाति के लोगों के लिए, इस पहचान को सजीव रखना और आगे बढ़ाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। ब्राह्मणों को अपने धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को जानना, समझना, और आगे बढ़ाना उनके लिए एक गर्वशील कर्तव्य है। ज्ञान का साक्षरता ब्राह्मण वंश के लोगों को अपने गौत्र, प्रवर, और वेदशास्त्र के बारे में जानकर रहना चाहिए। यह न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को मजबूत बनाए रखेगा, बल्कि उन्हें उनके समाज में सहायक बनाए रखने में भी मदद करेगा। पीढ़ी को जानकारी देना ब्राह्मण परंपरा को आगे बढ़ाते समय, अपनी पीढ़ियों को इस धरोहर की महत्वपूर्णता का संबोधन करना चाहिए। उन्हें अपने गोत्र, प्रवर, और वेदशास्त्र के बारे में बताकर उनकी आत्मा को संजीवनी देना होगा। समृद्धि का आधार ब्राह्मणों का ज्ञान और सांस्कृतिक समृद्धि में एक महत्वपूर्ण