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साकूबाई


महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के तट पर क्रार (Krar) नामक एक गाँव है। उस गाँव में एक ब्राह्मण अपने पुत्र, अपनी पत्नी तथा पुत्रवधू के साथ रहता था। पुत्रवधू का नाम साकूबाई था।


साकूबाई पण्ढरपुर भगवान् कृष्ण की परम भक्त थी। उसके होठों पर सदैव भगवान् का नाम रहता था। वह आज्ञाकारिणी, विनम्र, निष्कपट तथा सद्गुण-सम्पन महिला थी। उसकी सास निर्दयी, आत्मश्लाघी तथा प्रस्तर हृदय थी । ब्राह्मण तथा उसके पुत्र को इस महिला के कठोर नियन्त्रण में रहना पड़ता था। साकूबाई के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कटु था।

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साकूबाई अपने पारिवारिक कर्तव्यों का पालन अत्यन्त कुशलतापूर्वक करती थी; किन्तु कठोर परिश्रम करने पर भी उसको अपनी सास के हाथों प्रताड़ित होना पड़ता था। उसको वह पर्याप्त भोजन तक नहीं देती थी। साकूबाई को बासी या पर्युषित अन्न से ही क्षुधा-शान्ति करनी पड़ती थी; किन्तु वह धैर्यपूर्वक सब-कुछ सहन करती "जाती थी। प्रतिवाद के लिए उसका मुँह कभी नहीं खुलता था। उसके पति पर उसकी सास का कठोर नियन्त्रण था; अतः उससे वह अपनी व्यथा-कथा भी नहीं कह सकती थी । वह मन-ही-मन कहा करती थी— "मैं भगवान् के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, क्यों यदि मैं किसी हितकर परिवार की वधू होती, तो मैं उनका स्मरण नहीं कर पाती ।"


एक दिन पड़ोस की एक महिला ने साकूबाई से कहा- "बहन, मुझे तुम पर दया आती है । क्या तुम्हारे माता-पिता नहीं हैं? यह कैसी बात है कि उनमें से कोई तुमको देखने तक नहीं आता ?" साकूबाई ने मुस्करा कर कहा- "मेरे माता-पिता पण्ढरपुर में रहते हैं। भगवान् कृष्ण मेरे माता और रुक्मिणी मेरी माता हैं। इनके असंख्य पुत्र-पुत्रियाँ हैं। इसी कारण इन दोनों ने मुझे विस्मृत कर दिया है; किन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे एक दिन मेरे कष्ट निवारण के लिए मेरे पास अवश्य आयेंगे।"


पण्ढरपुर एक पवित्र तीर्थ स्थान है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को वहाँ एक बृहद् मेले का आयोजन हुआ करता है। भगवान् विट्ठल के दर्शन के लिए वहाँ विभिन्न स्थानों से लोग एकत्र होते हैं। वे हाथ में छोटी-छोटी पताकाएँ लिये क्रार गाँव से हो कर पण्ढरपुर पहुँचते हैं। वे मार्ग में हरि-कीर्तन करते, झाँझ-सितार बजाते और नृत्य करते हुए चलते हैं।


साकूबाई ने भक्तों के एक दल को देखा। इस दल के साथ पण्ढरपुर जाने की उसकी इच्छा प्रबल हो उठी; किन्तु परिवार के लोग उसे इसकी अनुमति नहीं दे सकते थे। फिर भी वह तीर्थयात्रियों के उस दल में सम्मिलित हो गयी।


पड़ोस की एक महिला ने साकूबाई को उस दल में सम्मिलित होते देख कर उसकी सास को यह सूचना दे दी। उसकी सास ने अपने पुत्र को उसे लौटा लाने का आदेश दिया । पुत्र उसके बालों को पकड़ कर उसे घसीटते हुए घर ले आया। मार्ग में उसे अपमानित करते हुए उस पर कई बार पदाघात भी किया ।


ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा उसके पुत्र ने साकूबाई को एक खम्भे में बाँध दिया। साकूबाई ने भगवान् से प्रार्थना की— “हे पण्ढरपुर के विट्ठल, मैंने स्वयं को तुम्हारे चरण-कमलों में आबद्ध करना चाहा था; किन्तु यहाँ मुझे एक रस्सी से बाँध दिया गया है। मेरा शरीर बन्धन में है; किन्तु मेरा मन स्वतन्त्र है जो तुम्हारे चरण कमलों पर दृढ़ रूप से स्थिर है। मुझे मृत्यु या शारीरिक यन्त्रणा से कोई भय नहीं है। मैं किसी भी मूल्य पर तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूँ। मेरे माता-पिता, मेरे गुरु तथा मेरे रक्षक तुम्हीं हो। हे कृपानिधान, क्या तुम मेरी इस विनम्र प्रार्थना को स्वीकार नहीं करोगे ?"


अन्तर्मन की प्रार्थना को भगवान् सुन लेते हैं। उन्होंने इस प्रार्थना के प्रति अपनी प्रतिक्रिया शीघ्र ही व्यक्त कर दी। साकूबाई की पुकार ने भगवान् कृष्ण को मर्माहत कर दिया और वे विचलित हो उठे। उन्होंने एक नारी का रूप ग्रहण किया और साकूबाई के समक्ष जा कर कहा— "प्रिय बहन, मैं पण्ढरपुर जा रही हूँ। क्या तुम्हें वहाँ नहीं चलना है ?" साकूबाई ने कहा- "इस खम्भे से बँधी होने के कारण मैं वहाँ कैसे जा सकूँगी ? वैसे, मेरी वहाँ जाने की प्रबल इच्छा है।"


उस नारी ने कहा—“बहन, मैं तुम्हारी सखी हूँ। मैं इस खम्भे से तुम्हारे स्थान पर स्वयं अपने को बाँध लेती हूँ। अब तुम पण्ढरपुर जा सकती हो।" उसने साकूबाई को बन्धन-मुक्त कर स्वयं अपने-आपको खम्भे से बाँध लिया और भगवान् की कृपा से साकूबाई ने स्वयं को एक क्षण में ही पण्ढरपुर में पाया। उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने मन-ही-मन कहा—“भगवान् की कृपा से मैं कृतकृत्य हो गयी। मैं मात्र उस रज्जु-बन्धन से मुक्त न हो कर जीवन के बन्धन से भी मुक्त हुई हूँ। आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ !"

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भगवान् साकूबाई का रूप ग्रहण कर अपने भक्त के दास हो गये। त्रिलोक के जिन स्वामी के नाम-स्मरण से माया के बन्धन विच्छिन्न हो जाते हैं, वे उस दिन एक भक्त के प्रति अपने अनुग्रह के कारण एक स्तम्भ से स्वयं आबद्ध हो गये। कितने दयालु है वे ? ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा उसके पुत्र ने नयी साकूबाई को पूर्ववत् अपमानित-प्रताड़ित किया; किन्तु भगवान् को इससे प्रसन्नता ही हुई ।


पन्दरह दिन बीत गये । इस बीच नयी साकूबाई को भोजन का एक ग्रास तक नहीं दिया गया। अब पति को कुछ सोचने पर विवश होना पड़ा। उसने सोचा- “यदि इसकी मृत्यु हो जाती है, तो लोग मुझे गालियाँ देने लगेंगे। सब लोगों को यह ज्ञात है कि मेरे माता-पिता क्रूर हृदय हैं। इस स्थिति में मुझे कोई दूसरी पत्नी भी नहीं मिल सकेगी।" उस पर उसे दया आ गयी और अपने निर्मम कृत्यों पर उसे पश्चात्ताप भी हुआ। उसने उसे बन्धन - मुक्त कर उससे कहा - "प्रिय साकू, मैने तुम्हारे प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है। मेरे माता-पिता के कारण भी तुम्हें बहुत कष्ट भोगने पड़े हैं। अब तुम मुझे क्षमा करने की कृपा करो और स्नान करने के पश्चात् भोजन कर लो।” अवनत-शिर नयी साकूबाई ने एक समर्पिता पत्नी की भाँति यह सब कुछ सुना । भगवान् से सोचा कि यदि वह वहाँ से शीघ्र अन्तर्धान हो जाते हैं, तो साकूबाई के लौटने पर ये लोग उसके प्रति और अधिक कटु व्यवहार करेंगे; अतः उन्होंने वहाँ रुक कर साकूबाई की भाँति उस परिवार की सेवा करते रहने का निश्चय कर लिया।


साकूबाई (भगवान्) ने स्नान कर स्वादिष्ट भोजन बनाया और उन तीनों ने भोजन किया। साकू (भगवान्) ने अन्त में भोजन किया। उन सभी लोगों ने साकू की पाकशास्त्रीय कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह पहला अवसर था जब साकू ने वही भोजन किया जो परिवार के अन्य लोगों ने किया था। साकू ने सास के पाँव दबाये और पारिवारिक कर्तव्य का सन्तोषजनक रूप से पालन किया। अब वह ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा पुत्र- ये सभी साकू से अत्यन्त प्रसन्न थे । वास्तविक साकू ने पण्ढरपुर पहुँच कर चन्द्रभागा नदी में स्नान किया। तत्पश्चात् उसने विट्ठल अर्थात् भगवान् कृष्ण का दर्शन किया। उसने निश्चय कर लिया कि वह पण्डरपुर का परित्याग कभी नहीं करेगी। वह दिव्य आनन्द में मग्न हो गयी ।


तत्पश्चात् वह संज्ञाशून्य हो कर धरती पर गिर पड़ी और तत्क्षण उसका देहान्त हो गया।


कार के निकटस्थ किवल गाँव का एक ब्राह्मण उस दिन उस मन्दिर में ही था । उसने साकूबाई को पहचान कर अपने कुछ मित्रों के सहयोग से उसका दाह-संस्कार कर दिया।


इस बात से भगवान् कृष्ण की अर्धागिनी रुक्मिणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयीं । उनके स्वामी कार में रह कर मृत साकूबाई, जिसका दाह-संस्कार तक हो चुका था, का उत्तरदायित्व वहन कर रहे थे। उन्होंने सोचा- "मैं अपने स्वामी को कार से किस प्रकार लौटा सकती हूँ?" उन्होंने अपनी योग-शक्ति से एक नूतन साकूबाई की सृष्टि कर दी।


रुक्मिणी ने नयी साकूबाई के स्वप्न में प्रकट हो कर उससे कहा - "प्रिय साकू, तुमने पण्ढरपुर न छोड़ने की शपथ ग्रहण की थी। जिस शरीर में रह कर तुमने यह शपथ ग्रहण की थी, उसका दाह-संस्कार किया जा चुका है; किन्तु मैने तुम्हें एक नया शरीर प्रदान कर दिया है। अब तुम अपने गाँव लौट जाओ। तुम भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त कर चुकी हो।"


साकूबाई अपने गाँव लौट गयी। वह नदी के तट पर अपनी उस बहन से मिली। उसने उससे कहा- " मैने तुम्हारी सहायता से ही भगवान् के दर्शन किये हैं। मैं तुम्हारी कृतज्ञ हूँ। जो-कुछ मुझे तुमसे प्राप्त हुआ है, उसने प्रतिदान में मैं तुम्हें दे भी क्या सकती हूँ?"


भगवान् ने साकू को घड़ा देते हुए कहा कि वह उसे अपने पर पहुँचा दे । इतना कह कर वे वहाँ से चले गये । साकू पानी का घड़ा लिये अपने घर जा कर गृह-कार्य में पूर्ववत् संलग्न हो गयी । उसे यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि अब उसके प्रति उसे सास-ससुर तथा पति के व्यवहार में बहुत अन्तर आ गया है। दूसरे दिन किवल गाँव का वह ब्राह्मण साकूबाई की मृत्यु की सूचना देने क्रार आया; किन्तु वहाँ यह देख कर वह स्तब्ध रह गया कि साकूबाई अपने गृह-कार्य में संलग्न है। उसने साकूबाई के ससुर से कहा – “पण्ढरपुर में तुम्हारी पुत्र-वधू का देहान्त हो गया था और मैंने कुछ मित्रों के सहयोग से उसका अन्तिम संस्कार कर दिया था। मेरे विचारानुसार आपके घर में उसका प्रेत आ पहुँचा है।" साकूबाई के श्वसुर तथा पति ने कहा – “साकूबाई सर्वदा यहीं रही है। वह पण्ढरपुर कभी नहीं गयी । आपने किसी अन्य महिला के शरीर का दाह संस्कार किया होगा।"


किवल के ब्राह्मण ने कहा— "आप अपनी पुत्र-वधू को बुला कर पूछिए कि वह पण्ढरपुर गयी थी कि नहीं।"


ब्राह्मण ने साकूबाई से पूछा - "साकू, तुम सत्य तथा निर्भीकता के साथ यह बताओ कि क्या तुम पण्ढरपुर गयी थी ? जो कुछ भी हुआ है, उसे यथार्थतः बता दो।"


साकू ने कहा- " पण्ढरपुर जाने की मेरी प्रबल इच्छा थी। जब मुझे खम्भे से बाँध दिया गया, तब एक महिला, जो मुझसे बहुत मिलती-जुलती थी, ने आ कर मुझे बन्धन-मुक्त कर दिया। इसके पश्चात् उसने मेरा स्थान ग्रहण कर मुझे पण्ढरपुर जाने को कहा और मैं वहाँ चली गयी। वहाँ भगवान् विट्ठल के समक्ष मेरी चेतना लुप्त हो गयी । एक रात रुक्मिणी ने मुझसे स्वप्न में कहा- “तुम्हारे शरीर का दाह-संस्कार तो हो चुका है; किन्तु मैने तुम्हें एक नया शरीर तथा नया जीवन प्रदान कर दिया है। अब तुम अपने गाँव चली जाओ।" वहाँ से आते समय मैंने उस महिला को नदी के किनारे देखा । उसने मुझे घर ले जाने के लिए पानी का घड़ा दिया और इसके पश्चात् वह चली गयो । अब मैं निश्चित रूप से यह कह सकती हूँ कि वह महिला स्वयं भगवान् कृष्ण अर्थात् भगवान् पाण्डुरंग थे। आप लोग भगवान् के दर्शन से कृतार्थ हो गये।"


अब उस ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा उसके पुत्र को भी यह विश्वास हो गया कि वह महिला निश्चित रूप से पण्ढरपुर के भगवान् थे। भगवान् के प्रति अपने दुष्कृत्य के कारण उन्हें बहुत दुःख हुआ। भगवान् के सम्पर्क के कारण वे तीनों पवित्र हो गये और उनका हृदय-परिवर्तन हो गया । अब उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान् का पूजन-अर्चन प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने कहा – “भगवन्, हम लोगों को क्षमा कीजिए। हम लोगों ने आपकी भक्त साकूबाई के प्रति नृशंस व्यवहार किया है। आपके प्रति भी हम लोगों से दुर्व्यवहार ही हुआ है। हे कृपा-निधान, आप हम सबको क्षमा कीजिए। हम सब आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। हम लोगों की रक्षा कीजिए।" वे सब साकूबाई की भी पूजा करने लगे ।


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मुक्ताबाई

मीराबाई जीवन परिचय || मीराबाई की कहानी


FAQ


Q1. क्रार (Krar) गाँव कहाँ स्थित है?

क्रार गाँव महाराष्ट्र, कृष्णा नदी के तट पर स्थित है।

साकूबाई कौन थीं और कृष्णा भगवान् की कृपाभक्त थीं?

साकूबाई एक ब्राह्मण थीं और कृष्ण भगवान् की परम भक्त थीं।

साकूबाई के साथ उसके पुत्र और पत्नी कैसे रहते थे?

साकूबाई के पुत्र और पत्नी उसके साथ रहते थे। पुत्रवधू का नाम साकूबाई था।

साकूबाई के सास-ससुर कैसे थे?

साकूबाई के सास निर्दयी और आत्मश्लाघी थीं और ससुर पर उसकी सास का कठोर नियंत्रण था।

कैसे भगवान् कृष्ण ने साकूबाई की प्रार्थना को सुना और उसके रूप में ग्रहण किया?

भगवान् कृष्ण ने साकूबाई की प्रार्थना को सुना और उसके रूप में एक नारी का रूप ग्रहण किया।

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