पंचांग परिचय | पंचांग देखना
संदर्भ:-
आइए हम पंचांग परिचय के इस महत्वपूर्ण और रोचक विषय की ओर एक छोटे से परिचय में बढ़ते हैं। पंचांग, जिसे हम भारतीय ज्योतिष शास्त्र में "पाँच अंगों" का संबोधन करते हैं, वह एक विशेष किंवदंती है जो हमें दिन, तिथि, नक्षत्र, तिथियाँ और विभिन्न हिन्दू त्यौहारों की जानकारी प्रदान करती है। इसका महत्व भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में बहुत उच्च है और यह लोगों को अपने दिन की शुभ-अशुभ मुहूर्त, त्यौहारों की तिथियों और अन्य महत्वपूर्ण सांविदानिक जानकारी से परिपूर्ण करता है। "पंचांग देखना" हमें समय की अनुसूचितता और समझने में मदद करता है। इसके माध्यम से हम अपने जीवन में सुख-शांति की कला सीखते हैं, जो दिनचर्या को सही दिशा में आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है। इससे हम विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयामों को समझ सकते हैं, जो हमारे समाज को एक-जुट बनाए रखने में मदद करता है। इस पंचांगिक परिचय के माध्यम से, हम आपको आपके दिन को और भी महत्वपूर्ण बनाने के लिए साथ चलने का प्रस्तावित करते हैं।
मित्रों ज्योतिष के अध्ययन में आज हम पंचांग परिचय पर अपनी चर्चा करेंगे और पंचांग किस लिए ज्योतिष में इतना अत्यावश्यक माना गया है उस पर भी अपनी चर्चा करेंगे लेकिन उससे भी पहले हम को यह जानना होगा कि ज्योतिष किया है सबसे पहले हम ज्योतिष को जाने फिर पंचांग के विषय में चर्चा करेंगे तो ज्योतिष के बारे में कहा गया है कि:-
ग्रहनक्षत्रतारादीनां प्रबोधजनकं शास्त्रं ज्योतिषमिति।
अर्थात ग्रह-नक्षत्र तारा इत्यादि का ज्ञान जिस शास्त्र से होता है उसको ज्योतिष कहते हैं यह जो ज्योतिष है वह एक वेदांग भी है और वेदों का चक्षु अर्थात वेदों का नेत्र वेदों की नेत्र ज्योति इसको कहा गया है
वेदस्य निर्मलं चक्षु :।।
अर्थात ज्योतिष जो वेद के नेत्र है अब नेत्र ही क्यो है नेत्र की संज्ञा क्यों मिली ज्योतिष को ?
तो देखिए हमको कुछ भी देखना है तो हम नेत्र के माध्यम से देख सकते हैं ठीक उसी प्रकार हमको भूत भविष्य वर्तमान दिखाने वाला ज्योतिषशास्त्र है इसलिए जो है ज्योतिष शास्त्र को नेत्रों की संज्ञा दी गई है अच्छा ज्योतिष शास्त्र में पंचांग की सहायता से हम जो है शुभ-अशुभ काल का पता कर लेते हैं उसके माध्यम से हम अपने कार्य को सुचारू रूप से संचालित करते हैं चाहे आपको यज्ञ इत्याधिक क्यों ना करनी हो पहले आपको पंचांग देखना होगा कि मुहूर्त सही है तिथि सही है कि नहीं है इन सब को देखने के बाद आप कर सकते हैं और पंचांग के विषय में लगध आचार्य जी भी कहते हैं कि
महात्मना लगधेन उक्तम् –
वेदास्तावद् यज्ञकर्मप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
यस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेत्ति स वेद यज्ञान् ।।
अर्थात आपको यज्ञ में अगर कोई भी कार्य करना तो आपको ज्योतिष की जानकारी जरूरी है और ज्योतिष में भी पंचांग की जानकारी आपको इसलिए जरूरी है क्योंकि जब आप पंचांग का ज्ञान रखेंगे तभी तो आप सही तिथि सही मुहूर्त सही नक्षत्र सही दिन का चयन करेंगे अच्छा चलिए तो हम चर्चा करते हैं पंचांग के विषय में की पंचांग के किसको कहते हैं तो पंचांग के विषय में हमको श्लोक मिलता है कि:-
तिथि वारं च नक्षत्रं, योगः करणमेव च। एतेषां यत्र विज्ञानं, पञ्चाङ्गं तन्निगद्यते।
कौन-कौन से पांच अंग है वह तिथि,वार,नक्षत्र,योग और करण। इनको ही जो है पंचांग की संज्ञा दी गई है अब तिथि आपके बारे में बार नक्षत्र योग करण सबके बारे में हम क्रमशः एक-एक करके जानते हैं :-
तिथि
तिथि से हम अपनी बात को प्रारंभ करते हैं तिथियां कितनी होती हैं सबसे पहले हम जाने तिथि कहते किसको हैं देखिए सूर्य और चंद्र के मध्य का जो 12 अंश का कोण होता है उसी को एक तिथि का समय कहा गया है वहीं एक तिथि कहलाती है और एक तिथियां जो है दो विभागों में विभक्ति है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष अर्थात पंद्रह तिथि शुक्ल पक्ष में होती हैं और 15 तिथि कृष्ण पक्ष में होती हैं यह बात तो आप सभी जानते हैं कि
सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों ही गति करते हैं। जब चन्द्रमा सूर्य से से दूर जाता है तब बढ़ता हुआ दिखाई देता ह है। । सूर्य से दूर जाने वाले समय को शुक्ल पक्ष कहते हैं। जब चन्द्रमा सूर्य के नजदीक आता है तब घटता हुआ दिखाई देता है और इसे कृष्ण पक्ष कहते हैं।
इन दोनों विभागों में पंद्रह पंद्रह तिथियां बटी हैं अब तिथियां कौन सी है चलिए उनको हम पढ़ लेते हैं तो तिथि के बारे में हमको इस लोक प्राप्त होता है कि
प्रतिवच्च द्वितीया च तृतीया तदनन्तरम् ।
चतुर्थी पश्चमी षष्ठी सप्तमी चाष्टमी तथा ।। ११ ।।
नवमी दशमी चंवैकादशी द्वादशी ततः ।
त्रयोदशी ततो ज्ञेया ततः प्रोप्ता चतुर्दशी ।।
पौणिमा शुक्लपक्ष तु कृष्णपक्षे त्वमा स्मृता ॥ १२ ॥
प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष में पंद्रह तिथियां होती हैं जो प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक कृष्ण पक्ष में पंद्रह तिथियां होती तो प्रतिपदा से चतुर्दशी तक तो समान है बस हमको याद करना है कि शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि पूर्णिमा होती है और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि क्या होती है -अमावस्या ।
तो इस प्रकार एक महीने में योग किया जाए तो 30 तिथियां होती है 15वीं शुक्ल पक्ष की ओर 15 कृष्ण पक्ष की अब इन तिथियों की कुछ संज्ञा हैं वह संज्ञा क्या है हम इस श्लोक से समझेंगे
तिथीनां नन्दादिसंज्ञा-
नन्दा च भद्रा च जया च रिक्ता, पूर्णेति सर्वास्तिथयः क्रमात्स्युः।कनिष्ठमध्येष्टफलास्तु शुक्ले कृष्णे भवन्त्युत्तममध्यहीनाः ॥ १३॥
अर्थात नंदा,भद्रा,जया,रिक्ता और पूर्ण यह पांच प्रकार की संज्ञा तिथियों को दी गई हैं।
अब आप कहोगे की तिथि तो 30 है। मूल रूप से 15 तो हैं परंतु अंतिम तिथि पूर्णिमा और अमावस्या बस बदलती है बाकी ज्यों की त्यों है तो तिथि तो 15 में फिर हम 5 को कैसे जमाएं यह 5 संज्ञा है तो आप इसको इस प्रकार से जमाइए-
प्रतिपदा - नन्दा
द्वितीया - भद्रा
तृतीया - जया
चतुर्थी - रिक्ता
पंचमी - पूर्णा
षष्ठी - नन्दा
सप्तमी - भद्रा
अष्टमी - जया
नवमी - रिक्ता
दशमी - पूर्णा
एकादशी - नन्दा
द्वादशी - भद्रा
त्रयोदशी - जया
चतुर्दशी - रिक्ता
पूर्णिमा/अमावस्या - पूर्णा
तो यह जो तिथि की संज्ञा है इन संज्ञा वाली तिथियों में भी कुछ कार्य करना बहुत शुभ तथा अशुभ बताया हैं ।
आप इसको एक प्रकार से और समझ सकते हैं:-
1,6,11- नन्दा
2,7, 12 - भद्रा
3,8, 13- जया
4,9, 14-रिक्ता
5, 10, 15- पूर्णा
इन सभी तिथि की जो संज्ञा हैं इनके अपने-अपने फल है कि नंदा तिथियों में कौन से कार्य करना चाहिए। भद्रा तिथियों में कौन से कार्य करना चाहिए। आदि।
तो इसके बारे में जो श्लोक मिलता है:-
नन्दादिषु कृत्यमाह श्रीपतिः -
नन्दासु चित्रोत्सववास्तुतन्त्रक्षेत्रादि कुर्वीत तथैव मृत्यम् ।
विवाहभूषाशकटाध्वयाने भद्रासु कार्याण्यपि पौष्टिकानि ।। १४ ।।
जयासु सङ्ग्रामबलोपयोगिकार्याणि सिद्धधन्ति हि निमितानि ।
रिक्तासु विद्विड्वधबन्धधात विषाग्निशस्त्रादि च यान्ति सिद्धिम् ॥ १५॥
पूर्णासु माङ्गल्यविवाहयात्राः सशान्तिकं पौष्टिककर्म कार्यम् ।
सदैव दशें पितृकर्म युक्तं नान्यद्विदध्याच्छुभमङ्गलादि ।। १६ ।
विवाहभूषाशकटाध्वयाने भद्रासु कार्याण्यपि पौष्टिकानि ।। १४ ।।
जयासु सङ्ग्रामबलोपयोगिकार्याणि सिद्धधन्ति हि निमितानि ।
रिक्तासु विद्विड्वधबन्धधात विषाग्निशस्त्रादि च यान्ति सिद्धिम् ॥ १५॥
पूर्णासु माङ्गल्यविवाहयात्राः सशान्तिकं पौष्टिककर्म कार्यम् ।
सदैव दशें पितृकर्म युक्तं नान्यद्विदध्याच्छुभमङ्गलादि ।। १६ ।
अर्थात नंदा तिथि में हम चित्र,उत्सव, वास्तु, क्षेत्र इत्यादि कार्य कर सकते हैं। नंदा तिथियों में कार्य शुभ होते हैं।
भद्रा में विवाह,भूषण,शकट,यात्रा और पौष्टिक कार्य शुभ माने गए हैं ।
जया के बारे में लिखा कि जया तिथि में संग्राम, बल उपयोगी कार्य, निर्माण आदि कार्य सिद्ध होते हैं।और
रिक्ता तिथि में शत्रुता,यार, दुश्मनों,वध ,घनत्व,अग्नि और स्वस्थ, रक्त संबंधी कार्य सिद्ध होते हैं।
पूर्णा तिथि में सभी प्रकार के मंगल कार्य किए जा सकते हैं जो भी मांगलिक कार्य है। यात्रा की जा सकती है शांति,पौष्टिक संबंधी कार्य किए जा सकते हैं विवाह इत्यादि कार्य भी किए जा सकते हैं और इसी के साथ-साथ इस श्लोक में लिखा है कि एक तिथि होती है अमावस्या तो यह जो अमावस्या तिथि है अमावस्या तिथि भी पुण्यतिथि की संख्या में आती है किंतु उसमें हमको मांगलिक कार्य नहीं करना है अमावस्या में केवल पितृ कार्य किए जा सकते हैं। अन्य शुभ कार्य अमावस्या तिथि में नहीं करना चाहिए तो मुझे आशा है कि आप सभी को तिथियों का ज्ञान हो गया होगा।
तिथिक्षय :
यदि एक तिथि सूर्योदय के पश्चात् प्रारम्भ होकर अगले सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है तो उस तिथि को क्षय तिथि कहा जाता है। तिथि क्षय का अर्थ है वह तिथि सूर्योदय के समय नहीं थी। जैसे यदि चन्द्रमा तथा सूर्य के भोगांश का अन्तर 36 अंश व 48 अंश एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय के बीच में ही हो तो चतुर्थी तिथि का लोप हो गया अतः चतुर्थी तिथि क्षय हुई। जिस दिन कोई तिथि क्षय होती है वह दिन मुहूर्त आदि के लिए शुभ नही होता ।
तिथि वृद्धि :
यदि कोई तिथि दो सूर्योदयों के समय मौजूद होती है अथवा यह कहें कि कोई तिथि एक सूर्योदय से पूर्व प्रारम्भ हो कर अगले दिन के सूर्योदय के पश्चात् समाप्त होती है, तो यह तिथि वृद्धि कहलाती है। यह भी सभी शुभ कार्यों में त्याग देनी चाहिए।वार
नक्षत्र
योग
पंचांग का चतुर्थ महत्त्वपूर्ण अंग योग है। योग सूर्य तथा चन्द्रमा के भोगांशों के योग से बनता है। योगों की संख्या 27 है, जो इस प्रकार हैं।करण
पंचाँग का महत्त्वपूर्ण पांचवाँ अंग करण होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। प्रत्येक तिथि में दो करण होते हैं। तिथि के प्रारम्भ से पहला करण शुरू होता है, वह तिथि के मध्य में समाप्त हो जाता है तथा वहाँ से दूसरा करण शुरू हो कर तिथि के अन्त में वह भी समाप्त हो जाता है। जिस प्रकार चन्द्रमा की सूर्य से प्रत्येक 12° की दूरी पर एक तिथि का निर्माण होता है उसी प्रकार 6° की दूरी पर एक करण बनता है। सात चर करण होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि । चार स्थिर करण होते हैं। इनके नाम हैं शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघ्न। चर करणों की आवृत्ति एक मास में आठ बार होती है, तथा स्थिर करण एक बार ही एक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के आधे भाग से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के आधे तक होते हैं।इन्हें भी देखें।:-
Comments
Post a Comment