गुरु अमरदास भल्ला कुल के खत्री थे। उनका जन्म अमृतसर के फगनाथ में बसरका नामक स्थान पर १४७९ इ० म हुआ था।
अमरदास अति साधारण-कुलोत्पन्न व्यक्ति थे। उन्होंने किराये पर एक टट्टू ले लिया था जिस पर सामान लाद कर वह इधर से उधर ले जाया करते थे । यही उनके जीविकोपार्जन का साधन था। वह एक सत्संग-प्रिय व्यक्ति थे । उनको एक महान् आध्यात्मिक गुरु की खोज थी। वह वैष्णव थे। एक दिन उन्होंने गुरु नानक के कुछ स्तोत्रों का पाठ सुना जिससे वह अत्यन्त प्रभावित हुए। बासठ वर्ष की आयु में खदूर पहुँच कर उन्होंने गुरु अंगद को गुरु-रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने अनन्य भाव से गुरु की सेवा की और उनकी सुख-सुविधा के लिए अपनी सुख-सुविधा की बलि दी।
वह प्रत्येक अर्धरात्रि को अपने गुरु के प्रातः स्नान के लिए खदूर से चार मील दूर बहने वाली व्यास नदी से शुद्ध-स्वच्छ जल लाया करते थे। ऋतु कैसी भी क्यों न हो, आँधी-पानी का प्रकोप कितना भी क्यों न हो, वह नियमित रूप से इस कार्य का निष्पादन किया करते थे । वह पाकशाला के लिए लकड़ी लाने वन में जाया करते थे । वह ईश्वर के नाम के मानसिक जप में सदैव संलग्न रहते थे। अपने दैनिक कार्यों के समय भी उनका यह जप चलता रहता था ।
गुरु भण्डार गृह से उन्होंने कभी भी अन्न ग्रहण नहीं किया। गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी उत्कट थी कि उन्होंने अपने शरीर के पृष्ठभाग को गुरु तथा गुरु-गृह के सम्मुख कभी नहीं होने दिया। भले ही उनको आगे जाना हो या पीछे लौटना हो, उनका मुख सर्वदा गुरु-गृह के सम्मुख ही रहता था। नदी की अपनी अर्धरात्रि की यात्रा में भी वह अपने गन्तव्य की ओर पीठ करके ही चलते थे जिससे गुरु-गृह सदा उनके सम्मुख रहे।उन्होंने अपनी सेवाओं का कभी कहीं न्यूनतम उल्लेख भी नहीं किया।
एक दिन अमरदास नदी से जल ले कर लौट रहे थे। रात अँधेरी थी और उसमें घन-गर्जन, तड़ित-पात तथा वर्षा का उत्पात चल रहा था। संयोगवश अमरदास एक जुलाहे के घर के अत्यन्त समीप एक खूँटी से ठोकर खा कर उसके करघे के गर्त में जा गिरे। किन्तु वह पानी से भरा हुआ घड़ा ले कर उस गर्त से बाहर निकल आये। शोर सुन कर जुलाहे ने अपनी पत्नी से पूछा- "यह कौन आदमी है जो आधी रात को इधर-उधर घूम रहा है?" पत्नी ने उत्तर दिया- "यह वही अभागा तथा गृह-विहीन अमरदास होगा जो रोटी के एक टुकड़े के लिए गुरु की सेवा किया करता है। "
यह समाचार गुरु अंगद तक पहुँच गया। उन्होंने कहा—“अमरु गृह-विहीन न हो कर गृह-विहीनों के लिए गृह, असुरक्षितों के लिए दुर्ग तथा निराश्रितों के लिए शरण स्थल है। वह निराधारों का आधार, मित्र-हीनों का मित्र और समस्त संसार तथा इसकी आस्था का अवलम्बन है जो उसका अनुसरण करेगा, वह ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करेगा।"
अमरदास को गुरु अंगद का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। अवनत-शिर गुरु अंगद ने अमरदास को पाँच पैसे तथा एक नारियल की भेंट दे कर चार बार उनकी परिक्रमा की। गुरु अंगद को अपना उत्तराधिकारी बनाते समय गुरु नानक ने भी ऐसा ही किया था ।
अंगद के देहान्त के पश्चात् उनके पुत्र दातू ने उनके स्थान का बलपूर्वक अधिग्रहण ख। अमरदास कर लेना चाहा। उसने घोषित किया—“अमरे वृद्ध हो गया है। वह मेरा सेवक है।. गुरु के वंश क्रम के अनुसार मैं राजकुमार हूँ और गुरु-गद्दी मेरी है।”
सिक्खों ने दातू को मान्यता प्रदान नहीं की। गुरु अमरदास की प्रसिद्धि के कारण उसके मन में ईर्ष्याग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसने उन पर पदाघात कर उन्हें गोविन्दवाल की गद्दी से बाहर निकाल दिया। उसने उनसे कहा—“अभी कल तक तुम मेरे घर में पानी भरा करते थे और आज यहाँ तुम एक गुरु की तरह विराजमान हो।"
गुरु ने विनम्रतापूर्वक कहा—“महाराज, आप महान् हैं। मुझे क्षमा कीजिए। आपके चरणों को निश्चय ही कष्ट हुआ होगा।” इतना कह कर वह गोविन्दवाल को छोड़ कर अपने जन्म-स्थान बसारका (Basarka) चले गये।
सिक्खों के हृदय में दातू के प्रति आदर की भावना नहीं थी। वे उसे किसी प्रकार की भेंट भी नहीं देते थे । दातू अमरदास की सारी सम्पत्ति एक ऊँट पर लाट कर खदूर (Khadur) की ओर चल पड़ा; किन्तु मार्ग में डाकुओं ने उस पर आक्रमण कर ऊँट पर लदी सारी सम्पत्ति लूट ली । जब उसने प्रतिरोध किया, तब डाकुओं ने उसके उसी पैर पर लाठी मारी जिससे उसने गुरु अमरदास पर आघात किया था। उसका वह पैर सूज गया और उसे असहनीय पीड़ा भोगनी पड़ी।
अब अमरदास गोविन्दवाल पहुँच कर गुरु गद्दी पर आसीन हो गये। एक उपदेशक तथा शिक्षक के रूप में उन्होंने विपुल ख्याति अर्जित की। उन्होंने अनेक लोगों को सिक्ख मत में दीक्षित किया। उनके प्रवचन को अकबर भी ध्यानपूर्वक सुना करता था। अमरदास न्यायप्रिय, ज्ञानी, विनम्र तथा धैर्यवान् थे। उन्होंने गुरु नानक के मत का प्रचार-प्रसार दूर-दूर तक किया। उन्होंने अनेक सुन्दर कविताओं वाणियों) की रचना की रचना की जो सरल सहज शब्द-योजना तथा विचारों की विशुद्धता के कारण लोगों में अत्यन्त प्रशंसित हुई। उन्होंने नानक के धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपने बाईस योग्यतम शिष्यों को देश के विभिन्न भागों में भेजा । ने नानक के
अमरदास पुत्र श्रीचन्द द्वारा स्थापित उदासी-सम्प्रदाय के अकर्मण्य लोगों को सक्रिय तथा प्रगतिशील सिक्खों से पृथक् कर दिया। उन्होंने एक बृहद सार्वजनिक पाकशाला की व्यवस्था की जिसके द्वार सभी मतों तथा जातियों के लिए मुक्त रहते थे । इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-सभी वर्णों के लोग बिना किसी भेद-भाव के एक ही पंक्ति में बैठ कर साथ-साथ भोजन करते थे । भेंट में प्राप्त समग्र आय का उपयोग एकमात्र पाकशाला के ही लिए होता था। वहाँ यह पूछने का अधिकार किसी को न था कि भोजन पकाने वाला कोई ब्राह्मण है या निम्नकुलोत्पन्न सिख । अमरदास के आदेशानुसार किसी दर्शनार्थी को उनके दर्शन की अनुमति तभी दी जाती थी, जब वह लंगर में जा कर भोजन कर ले। कांगड़ा स्थित हरिपुर के तत्कालीन राजा को भी लंगर में अन्न ग्रहण कर लेने के पश्चात् ही गुरु के दर्शन की अनुमति प्राप्त हो सकी थी।
सम्राट् अकबर ने भी लंगर में भोजन किया था। उसने पाकशाला के विधिवत् परिचालन के लिए गुरु के सम्मुख जागीर में बारह गाँव देने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया; किन्तु गुरु ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा- "ईश्वर स्वयं पाकशाला की व्यवस्था कर रहा है; अतः इसके लिए किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं है।" तब अकबर ने बारह गाँवों की यह भेंट गुरु की पुत्री बीबी भेनी को भेंट कर दी। अमरदास सती-प्रथा के समर्थक नहीं थे। उन्होंने इसका प्रचलन समाप्त कर दिया। उन्होंने विवाह तथा मृत्यु के अनुष्ठानों को एक नया रूप प्रदान किया ।
अमरदास ने गोविन्दवाल में एक बावली, चौरासी सीढ़ियों वाला एक आयताकार बृहद तालाब तथा यात्रियों के लिए विश्राम-कक्षों का निर्माण किया।
'जपुजी' का पाठ करते हुए इस तालाब में स्नान करना पुण्य-प्रदायक माना जाता है। गुरु अमरदास की स्मृति में यहाँ प्रतिवर्ष दो मेलों का आयोजन किया जाता है जिनमें बहुसंख्यक सिक्ख सम्मिलित होते हैं ।
एक बार सिक्खों ने गुरु से पूछा - "हे श्रद्धेय गुरु, सच्चे सिक्ख के क्या लक्षण हैं?" गुरु अमरदास ने कहा "जिस प्रकार कोई मोती वर्षा की एक बूँद से सन्तुष्ट हो कर एक नये मोती की उत्पत्ति के लिए अधोभाग में चला जाता है, उसी प्रकार एक सिक्ख को भी गुरु-मन्त्र की प्राप्ति के पश्चात् सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। उसे ईश्वर के नाम का जप सदैव करते रहना चाहिए। उसे यह समझ लेना चाहिए कि यह संसार तथा इसकी समस्त सम्पदा ईश्वर की है। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, मनुष्य को अपने मन को सर्वदा सन्तुलित रखना चाहिए।
उसे एक ही ईश्वर की उपासना करनी चाहिए जो सब-कुछ करने में समर्थ है। उसे अनन्य भाव से एकमात्र उसी पर निर्भर रहना चाहिए। उसे किसी समाधि स्थल या श्मशान का पूजन नहीं करना चाहिए।"
एक अन्य अवसर पर गोविन्दवाल के एक स्वर्णकार तथा उसकी पत्नी ने गुरु चरणों पर गिर कर उनसे एक सन्तान की याचना की। गुरु ने उनसे विनोदपूर्वक पूछा - "क्या मैं लोगों को देने के लिए अपने पास सर्वदा सन्तान लिये रहता हूँ?" स्वर्णकार ने कहा – “सन्तान-दान के लिए गुरु की वाणी ही पर्याप्त है।" स्वर्णकार के इन शब्दों से प्रसन्न हो कर गुरु अमरदास ने कहा- “तुम लोगों के दो बच्चे होंगे।" समय आने पर स्वर्णकार की पत्नी दो पुत्रों की माँ बनी ।
मोहन तथा मोहरी (Mohri) (अमरदास) के दो पुत्र तथा दानी और बीबी भेनी दो पुत्रियाँ थीं। भेनी का विवाह रामदास से हुआ था जिसे लोग जेठा कहा करते थे दानी का विवाह राम से हुआ जो गुरु नानक के परिवार का था। 1
अमरदास ने जेठा को दो तालाबों की खुदाई का आदेश दिया। जेठा ने उनके आदेश का पालन किया। एक तालाब को सन्तोकसर के नाम से दूसरे को अमृतसर के नाम से अभिहित किया गया और इस प्रकार सुप्रसिद्ध नगर अमृतसर की स्थापना हुई ।
एक बार अमरदास ने अपने दोनों दामादों के परीक्षण का निश्चय किया। उन्होंने उनको एक-एक चबूतरा बनाने का आदेश दिया जिनमें से एक पर वह प्रातःकाल तथा दूसरे पर शाम को बैठ सकें। राम ने चबूतरे का निर्माण पहले कर दिया; किन्तु गुरु ने उस पर आपत्ति प्रकट करते हुए उसे दूसरे चबूतरे का निर्माण का आदेश दिया। राम ने उस चबूतरे को गिरा कर दूसरे चबूतरे का निर्माण किया; किन्तु गुरु इससे भी सन्तुष्ट न हो सके। उन्होंने इसे गिरा कर दूसरे चबूतरे के निर्माण का आदेश दिया। राम ने उनके इस आदेश का भी पालन किया; किन्तु जब गुरु ने तीसरी बार आपत्ति प्रकट की, तब राम ने चबूतरे को गिरा तो दिया; किन्तु उसके स्थान पर दूसरा चबूतरा बनाना अस्वीकार कर दिया। उसने कहा- "वृद्ध होने के कारण गुरु की विवेक-शक्ति कुण्ठित हो गयी है। "
इसके पश्चात् गुरु ने जेठा को भी इसी प्रकार के आदेश दिये। जेठा ने चबूतरे को सात बार गिराया तथा सात बार बनाया और इस बीच उसने कोई आपत्ति भी नहीं प्रकट की। गुरु ने उसे अपनी बाहों में भर कर कहा -तुमने मेरे आदेश का सात बार पालन करते हुए यह चबूतरा बनाया है; अतः इस गुरु-गद्दी पर तुम्हारी सात पीढ़ियाँ आसीन होती रहेंगी। "
गुरु अमरदास ने अपनी पुत्री भेनी को यह आश्वासन दिया कि यह उत्तराधिकार उसकी सन्तति को ही प्राप्त होता रहेगा।
१५७४ ई. में गुरु ने जेठा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इसके दो दिनों के पश्चात् ९५ वर्ष की आयु में गोविन्दवाल में उनका देहान्त हो गया । बासठ वर्ष की आयु में उन्होंने गुरु अंगद की सेवा प्रारम्भ की थी। उन्होंने बारह वर्षों तक अपने गुरु की सेवा की और बाईस वर्षों तक गुरु का उत्तराधिकार वहन किया।
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FAQ
प्रश्न: गुरु अमरदास कौन थे?
उत्तर: गुरु अमरदास भल्ला कुल के खत्री और भारतीय सिखों के तीसरे गुरु थे। उनका जन्म 1479 ई. में अमृतसर के फगनाथ में हुआ था।
प्रश्न: उनकी महत्वपूर्ण गतिविधियाँ क्या थीं?
उत्तर: गुरु अमरदास ने एक टट्टू के साथ सामान लादकर व्यापार किया, गुरु नानक के स्तोत्रों का पाठ किया, गुरु अंगद को उनके उत्तराधिकारी घोषित किया और सेवा की।
प्रश्न: उनका परम्परागत महत्व क्या था?
उत्तर: गुरु अमरदास ने सिख समुदाय के लिए भक्ति, सेवा, और उदारता के मूल सिद्धांतों को प्रमोट किया और सिखों को एकता और सामाजिक समरसता की दिशा में मार्गदर्शन किया।
प्रश्न: उनका योगदान क्या था?
उत्तर: गुरु अमरदास ने सिख समुदाय को उनके आदर्शों की मिसाल प्रस्तुत की, उनकी सेवाभावना, आदर्शों की पालना, और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से।
प्रश्न: उनकी आदर्श क्या थी?
उत्तर: गुरु अमरदास की आदर्शों में श्रद्धा, सेवाभावना, और उदारता की महत्वपूर्ण उपदेश थे, जिनसे सिख समुदाय को सेवा, समरसता, और ईश्वर के नाम में जीवन जीने का मार्ग मिला।