सिक्खों के पंचम गुरु अर्जुन देव का जन्म १५६३ ई० में हुआ था। वह गुरु-गद्दी पर १५८१ ई० से १६०६ ई. तक आसीन रहे। वह चतुर्थ गुरु रामदास के कनिष्ठतम पुत्र थे। ज्येष्ट पुत्र पिरथीचन्द अवज्ञाकारी तथा मिथ्याभाषी था; अतः उसके पिता ने उसे बहिष्कृत कर सिक्खों को उससे सम्बन्ध-विच्छेद का आदेश दे दिया । द्वितीय पुत्र महादेव सदैव गहन ध्यान में लीन रहता था। उसने समाज का परित्याग कर दिया था। कनिष्ठतम पुत्र अर्जुन प्रत्येक दृष्टि से योग्य थे; अतः १५८१ ई० में उनको अमृतसर में गुरु-गद्दी पर आसीन कर दिया गया। गुरु अमरदास ने भविष्यवाणी की थी — “मेरा पौत्र अर्जुन लोगों को संसार-सागर से पार उतारने के लिए एक नौका सिद्ध होगा । "
अर्जुन द्वारा तालाब तथा स्वर्ण-मन्दिर का निर्माण
गुरु रामदास ने अमृतसर का तालाब खुदवा कर नगर का शिलान्यास किया और गुरु अर्जुन ने तालाब तथा नगर के निर्माण-कार्य को पूर्ण किया। उन्होंने पवित्र हर-मन्दिर का भी निर्माण किया जो दरबार साहब या स्वर्ण-मन्दिर के नाम से अधिक विख्यात है । उनके अनुयायियों ने उनसे कहा कि मन्दिर आस-पास की सारी इमारतों की अपेक्षा अधिक ऊँचा होना चाहिए। गुरु अर्जुन ने उनसे कहा- “ - "ऐसा नहीं होना चाहिए। जो विनम्र है, उसी की प्रशंसा होनी चाहिए। वृक्ष जैसे-जैसे फलों से बोझिल होने लगता है, वैसे-वैसे उसकी शाखाएँ पृथ्वी की ओर अधोमुखी होने लगती हैं। तुम लोग किसी भी मार्ग से मन्दिर में पहुँचो, तुम्हें वहाँ से नीचे उतरने में केवल आठ-दश पग ही लगने चाहिए। अतः हर-मन्दिर की ऊँचाई इसकी निकटस्थ इमारतों से निम्नतर होनी चाहिए ।"
गुरु अर्जुन ने १५८९ ई० में स्वर्ण-मन्दिर की नींव में पहली ईंट रखी। संयोगवश एक राजमिस्त्री से वह ईंट स्थानान्तरित हो गयी। उसी समय अर्जुन ने भविष्यवाणी कर दी कि कभी-न-कभी इस नींव का पुनर्निर्माण करना होगा। उनकी यह भविष्यवाणी उस समय सत्य सिद्ध हो गयी, जब अफगानिस्तान के शाह अहमदशाह अब्दाली ने मन्दिर को ध्वस्त तथा तालाब की पवित्रता को कलुषित कर दिया। दो वर्षों के बाद सिक्खों ने मन्दिर के ध्वंसावशेष के स्थान पर पुनः मन्दिर की नींव रखी और उस पर मन्दिर का पुनर्निर्माण किया। वह नव-निर्मित मन्दिर और अधिक भव्य है ।सिक्ख गुरुओं के मत के प्रचार-प्रसार तथा शक्ति-संवर्धन में गुरु अर्जुन का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । वह माला तथा सन्त के बाने का परित्याग कर बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे । उनके यहाँ अनेक परिकर तथा हाथी-घोड़े थे। उन्होंने सिक्खों को एक समुदाय में संगठित कर दिया। उनके यहाँ एक व्यवस्थित प्रशासन-तन्त्र था। लोगों को अपनी आय का दशांश देना पड़ता था। इसकी वसूली के लिए समाहर्ताओं को नियुक्त किया गया था। व्यापार तथा अपने मत के प्रसारण के लिए उन्होंने अपने शिष्यों को तुर्किस्तान-जैसे देशों में भी भेजा था। सिक्ख-मत का प्रसार काबुल, कन्धार, सिन्ध तथा मालवा तक हुआ था।
हर-मन्दिर के परिरूप के सम्बन्ध में गुरु अर्जुन ने एक नये उपक्रम का प्रारम्भ किया जो सामान्य मन्दिरों के परिरूप के अनुरूप नहीं था। हिन्दू-मन्दिरों के द्वार तीन ओर से बन्द रह कर केवल पूर्वाभिमुख अर्थात् सूर्योदय की दिशा की ओर होते हैं; किन्तु महान् सिक्ख-मन्दिर के द्वार चारों दिशाओं में मुक्त हैं। इसका यही अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति सिक्ख-मत-प्रतिपादित उपासना का अधिकारी है और सूर्योपासना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है ।
अर्जुन द्वारा 'आदि ग्रन्थ' का संकलन
गुरु अर्जुन ने 'आदि ग्रन्थ' या 'ग्रन्थ साहिब' का संकलन किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की वाणियों को एक ही ग्रन्थ में संग्रहित किया। उन्होंने सोचा कि यह पवित्र ग्रन्थ सिक्खों के लिए सार्वकालिक पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगा। उन्होंने इस 'आदि ग्रन्थ' में स्वयं अपनी रचनाओं के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य धर्मावलम्बी सुधारकों की रचनाओं को भी सम्मिलित कर लिया और प्रख्यात सिक्ख कवि भाई गुरुदास 'ग्रन्थ साहिब' के श्रुत-लेखन का कार्य सम्पन्न करवाया। 'ग्रन्थ साहिब' को अमृतसर से के पवित्र मन्दिर के मध्य में रखा जाता है और एकत्र जन-समूह के सम्मुख प्रति दिन इसका नियमित पाठ होता है।
पिरथी के दुष्कृत्य
गुरु रामदास ने गुरु-गद्दी के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र पिरथीचन्द को नामांकित नहीं किया था, अतः वह गुरु को सर्वदा अपना शत्रु समझता रहा। उसने अर्जुन को गुरु-गद्दी से वंचित करने के लिए अथक प्रयास किये। उनके विरुद्ध उसने न्यायालय में कई मुकदमे दायर किये; किन्तु इस अभियान में वह सर्वदा असफल होता रहा। गुरु अर्जुन की उदारता के कारण कर तथा मकानों के किराये से अर्जित धनराशि का कुछ अंश उसको भी मिल जाता था। इसके अतिरिक्त वह सीमा-शुल्क से प्राप्त कुछ धन अपने अग्रज महादेव को भी दिया करते थे। स्वयं उनका काम उनके निष्ठावान् अनुयायियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक अर्पित भेंट से ही चलता था।
गुरु अर्जुन के प्रति पिरथी की ईर्ष्याग्नि को उसकी पत्नी करमो और अधिक प्रज्वलित कर दिया करती थी। पिरथी को आशा थी कि गुरु अर्जुन के निःसन्तान होने के कारण उसका पुत्र मेहरबान सिंह गुरु-गद्दी का उत्तराधिकारी होगा।
कुछ वर्षों के पश्चात् गुरु अर्जुन की पत्नी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम हरगोविन्द रखा गया। इस समाचार से पिरथी तथा करमो की क्रोधाग्नि और अधिक प्रज्वलित हो उठी। अपने भाई के प्रति पिरथी की अरुचि अब दुर्दम्य घृणा में रूपान्तरित हो गयी । उसने हरगोविन्द को विष देने के अनेक प्रयत्न किये। एक बार उसने एक परिचारिका को हरगोविन्द को दुग्ध-पान कराने के लिए भेजा। उस परिचारिका ने उसके आदेशानुसार अपने स्तनों पर विष का लेपन कर लिया था; किन्तु इसके पूर्व कि वह अपने स्तनों को शिशु की ओर ले जाती, वह मूर्च्छित हो कर गिर पड़ी। मूर्च्छा-भंग के पश्चात् उसने वहाँ अपने आगमन के दुष्प्रयोजन को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दिया। दूसरी बार पिरथी ने एक सँपेरे को इस बात के लिए प्रचुर धन दिया कि वह सर्प-दंश के माध्यम से हरगोविन्द की हत्या करवा दे; किन्तु उसका यह षड़यन्त्र भी विफल रहा। इसके बाद पिरथी ने एक ब्राह्मण को प्रचुर धन का प्रलोभन देकर शिशु के दूध में विष मिलाने के लिए भेजा; किन्तु गुरु को सन्देह हो गया और उन्होंने वह दूध एक कुत्ते को पिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। पिरथी ने लाहौर सूबे के एक मुसलमान अधिकारी को नगर से कर-उद्ग्रहण के बहाने अमृतसर को लूटने के लिए उत्प्रेरित किया। अकबर के पास जा कर उसने गुरु अर्जुन पर मिथ्या दोषारोपण किया; किन्तु महान् सम्राट् ने उसकी एक न सुनी । उसने पिरथी के आवेदन-पत्र को मिथ्या मान कर अस्वीकृत कर दिया। उसने गुरु से भेंट कर उनके तथा 'आदि ग्रन्थ' के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए उनको वस्त्रादि तथा स्वर्ण-मुद्राएँ अर्पित कीं। वह गुरु द्वारा निर्मित मन्दिर को देख कर अत्यन्त हर्षित हुआ। उसने स्वयं को गुरु का दास बताते हुए उनसे निर्देश-प्राप्ति की प्रार्थना की। गुरु के आतिथ्य-सत्कार तथा उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध हो कर उसने पंजाब के उस वर्ष के राजस्व को भेंट के रूप में उनको अर्पित कर दिया।
गुरु अर्जुन ने अपने अनुयायियों को एक राजनैतिक समुदाय के रूप में संगठित बहुसंख्यक लोगों को सिक्ख मत में दीक्षित कर लिया जिनमें पर्वतीय भू-खण्ड कुल्लू चम्बा, मण्डी, हरिपुर तथा चुकेत के अधिपति भी सम्मिलित थे। उन्होंने सिक्ख मत का प्रचार-प्रसार कश्मीर तक में किया ।
चन्दू शाह का षड़यन्त्र
पिरथीचन्द के अतिरिक्त चन्द्र शाह नामक एक अन्य व्यक्ति भी गुरु का शत्रु था। वह सम्राट् अकबर का दीवान तथा वित्तमन्त्री था। अर्जुन सिंह ने उसकी पुत्री सदा कौर को अपने पुत्र हरगोविन्द की वाग्दत्ता बनाना अस्वीकार कर दिया। चन्द्र शाह की गणना समृद्धतम लोगों में की जाती थी। उसने गुरु के प्रति कुछ अपमानजनक शब्द कहे और उनसे अपनी तुलना करते हुए उनको किसी भवन के नीचे की गन्दी नाली बताते हुए स्वयं को भवन का शिरोभाग बताया। इसका यह तात्पर्य था कि वह अपनी पुत्री का हाथ उस व्यक्ति को देने जा रहा था जिसकी सामाजिक स्थिति उसकी तुलना में सर्वथा नगण्य है । चन्दू शाह ने पुरोहित से कहा- “तुम भवन के अलंकृत शीर्षस्थ खण्ड को एक दूषित नाली में डालना चाहते हो।" सिक्खों ने उसकी इस तिरस्कार-युक्त गर्वोक्ति की सूचना गुरु को देते हुए उनसे प्रार्थना की कि वह वाग्दान को अस्वीकार कर दें । फलतः इसे अस्वीकार कर वाग्दान में प्राप्त उपहार लौटा दिये गये।
इससे चन्द्र शाह क्रोधोन्मत्त हो उठा। इस स्थिति को शान्त करने के लिए उसने गुरु को एक पत्र द्वारा सूचित कर दिया कि वह अपने अपशब्दों को वापस ले रहा है; किन्तु इसके साथ-ही-साथ उसने यह धमकी भी दे डाली कि यदि कोई समझौता नहीं हुआ, तो वह अपना सहयोग पिरथी को प्रदान करेगा। गुरु अर्जुन ने उसके इस पत्र का उत्तर नहीं दिया जिसके फल-स्वरूप चन्दू शाह गुरु अर्जुन का घोरतम शत्रु हो गया।
चन्द्र शाह ने अकबर को सूचित किया कि 'आदि ग्रन्थ' में इस्लाम तथा इसकी भविष्यवाणी को तिरस्कृत तथा अवमानित किया गया है। अकबर ने 'आदि ग्रन्थ' मँगवा कर उसमें संग्रहित अर्जुन सिंह तथा अन्य गुरुओं की वाणियों का परीक्षण करवाया। इस परीक्षण के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ये वाणियाँ सर्वथा निर्दोष तथा निष्कलुष हैं। उसने गुरु को अनेक बहुमूल्य उपहार दे कर विदा दिया।
इसके कुछ ही दिनों के पश्चात महान् अकबर का देहान्त हो गया और उसका पुत्र जहाँगीर सिंहासनारूढ़ हुआ। जहाँगीर के पुत्र खुसरो ने विद्रोह कर दिया; किन्तु पराजित हो कर वह अफगानिस्तान की ओर चल पड़ा। मार्ग में वह गुरु निवास-स्थान तरनतारन में रुका जहाँ उसे काबुल तक पहुँचने के लिए पाथेय के रूप में पाँच सहस्र रुपये प्राप्त हुए। के उधर चन्दू, पिरथी तथा पिरथी के पुत्र मेहरबान गुरु के प्रति सम्राट् जहाँगीर के मन में क्रोधाग्नि प्रज्वलित करने के लिए संघबद्ध हो गये। उन्होंने सम्राट् को यह सूचना दे दी कि गुरु ने खुसरो की केवल सहायता ही नहीं की; अपितु उसे आशीर्वाद देते हुए यह भविष्यवाणी भी कर दी कि एक दिन सिंहासन पर उसी का अधिकार होगा। सम्राट् ने गुरु को बुला कर कहा—“तुम धनी-निर्धन, सबको सम दृष्टि से देखते हो । मेरे शत्रु खुसरो को आर्थिक सहायता देना तुम्हारे लिए उचित नहीं था।"
गुरु अर्जुन ने कहा—“कोई हिन्दू हो या मुस्लिम, धनी हो या निर्धन, मित्र हो या शत्रु, मैं इन सभी का निरासक्त भाव से आदर करता हूँ और ऐसा करते हुए मुझमें उनके प्रति न प्रेम की भावना होती है न घृणा की। यही कारण है कि मैने तुम्हारे पुत्र को उसके यात्रा-व्यय के लिए कुछ रुपये दे दिये। मैंने उसे तुम्हारा शत्रु समझ कर रुपये नहीं दिये। यदि मैंने उसकी विपन्नावस्था में उसकी कुछ सहायता न की होती और इस सहायता के माध्यम से तुम्हारे दयालु पिता के प्रति सम्मान प्रकट नहीं किया होता, तो लोग मेरी इस हृदयहीनता तथा कृतघ्नता के लिए मुझसे घृणा करने लगते और कहते कि मैं तुमसे भयभीत हो गया था। गुरु नानक के किसी शिष्य के लिए यह स्थिति अशोभन तथा लज्जास्पद होती। मेरा अभिप्राय के सम्राट् करना नहीं था । " शत्रु की सहायता सम्राट् ने उनको दो लाख रुपयों का अर्थ-दण्ड दिया और इसके साथ ही उनको यह आदेश भी दिया कि 'ग्रन्थ साहिब' से उन सभी वाणियों को हटा दिया जाये जिससे हिन्दुओं तथा मुसलमानों की भावनाएं आहत होती हों।
गुरु अर्जुन ने कहा – “मैं एक सन्त हूँ। मेरे पास जो कुछ भी है, वह भेंट से ही प्राप्त हुआ है। यह सार्वजनिक सम्पत्ति है जिसका उपयोग निर्धनों तथा साधुओं की सेवा के लिए होता है। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आर्थिक सहायता की आवश्यकता है, तो मैं उस सहायता के लिए उद्यत हूँ, किन्तु यदि तुम अर्थ-दण्ड के रूप इसका अधिग्रहण करना चाहते हो, तो मैं तुम्हें एक कौड़ी भी नहीं दूँगा । अर्थ-दण्ड पुरोहितों तथा सन्तों पर न लगा कर गृहस्थों पर ही लगाया जाता है । जहाँ तक 'ग्रन्थ साहिब' से कुछ वाणियों को हटाने का प्रश्न है, मैं उन वाणियों को न तो हटाऊँगा, न उनमें कुछ परिवर्तन ही करूँगा। मैं एक अविनाशी ईश्वर की भक्ति करता हूँ जो सर्वोच्च आत्मा है । उस ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई सम्राट नहीं है। उसकी कृपा से गुरुओं में जिन अपौरुषेय भावों का स्फुरण हुआ, उन्हें 'ग्रन्थ साहिब' की वाणियों के रूप में लिपिबद्ध कर लिया गया। इन वाणियों में किसी हिन्दू अवतार या मुस्लिम पैगम्बर के प्रति अनादर के दर्शन नहीं होते । मेरा मुख्य उद्देश्य सत्य का प्रचार तथा मिथ्या का प्रहाण है। यदि इस लक्ष्य की पूर्ति में मेरा शरीरान्त भी हो जाता है, तो मैं स्वयं को कृतकृत्य ही समझँगा।"
जब लाहौर के सिक्खों ने अर्थ-दण्ड की बात सुनी, तब उन्होंने सार्वजनिक अशंदान द्वारा इसकी अदायगी का विचार किया; किन्तु गुरु अर्जुन ने इसकी अनुमति नहीं दी । गुरु को चन्दू शाह के हाथों सौंप दिया गया। वह उन्हें अपने घर ले आया। वहाँ उसने गुरु से उस वाग्दान को स्वीकार करने का अनुरोध किया जिसे पहले ही अस्वीकार किया जा चुका था। उसने उन्हें दहेज में प्रचर धन-राशि देने का भी ।
प्रलोभन दिया; किन्तु गुरु ने उससे स्पष्ट शब्दों में कहा कि उनके शब्द पत्थर पर अंकित रेखाएँ हैं जिनको मिटा पाना असम्भव है। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि यदि उन्हें दहेज में सारा संसार भी दे दिया जाये, तो भी वह चन्दू शाह की पुत्री से अपने पुत्र का विवाह नहीं करेंगे ।
चन्दू शाह द्वारा अर्जुन को यन्त्रणा
इसके पश्चात् चन्दू शाह ने उनके प्रति कठोरतम व्यवहार की धमकी दी। गुरु ने कहा कि नियति का निवारण असम्भव है। उन्होंने इसके फल-स्वरूप होने वाले कष्टों को सहन करने की अपनी इच्छा भी व्यक्त कर दी। उनके प्रति निर्मम व्यवहार किये गये । उनके समस्त शरीर पर हिंसात्मक आघात के चिह्न दृष्टिगत होने लगे। उनको कारागार में डाल दिया गया जहाँ ब्राह्मणों तथा काजियों ने उनको विभिन्न प्रकार की अमानुषिक यन्त्रणाएँ दीं। पाँच दिनों तक गुरु प्रतिशोधी चन्दू शाह के हाथों अकथनीय यन्त्रणा भोगते रहे। उसके अभिकर्ताओं ने उन पर तप्त बालुका-राशि डाली, उन्हें उत्तप्त कड़ाहे में रखा और इसके पश्चात् उबलते हुए पानी में फेंक दिया; किन्तु गुरु के मुँह से उनकी पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाला एक शब्द भी नहीं निकला ।
गुरु ने कहा- “अन्धविश्वास अनावृत तथा मन ज्योतिर्मय हो गया है। गुरु ने चरणों को आबद्ध करने वाले बन्धनों को विच्छिन्न कर दिया है और अब बन्दी मुक्त है । मेरे देहान्तरण की अवधि समाप्त हो चुकी है, मेरे कर्माशय का प्रहाण हो चुका है और मैं इससे सर्वथा मुक्त हूँ। अब मैं सिन्धु के तट पर आ पहुँचा हूँ। गुरु ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सत्य मेरा निवास-स्थान है, सत्य मेरी पीठिका है और सत्य ही मेरा विशिष्ट प्राप्तव्य है । सत्य मेरी पूँजी है और सत्य ही मेरे व्यापार में अर्जित मेरा धन है जिसे नानक ने अपने घर में संचित कर रखा है।”
मियां मीर नामक एक प्रसिद्ध सन्त ने चन्दू शाह को इस विवेकहीन कृत्य के विरुद्ध चेतावनी दी और गुरु से कहा कि वह यह सब-कुछ सम्राट् को बतायेंगे और उनके उत्पीड़क को नष्ट कर देंगे। गुरु ने कहा- “सहनशीलता सन्त का कर्तव्य है। हिंसा, हृदयहीनता तथा असम्मान के वातावरण में ही सन्त की आन्तरिकता का अनावरण होता है । सर्वशक्तिमान् ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई भी व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता । सुख-दुःख शरीर के लिए पूर्व-निर्धारित होते हैं। आत्मा इससे पृथक् है । अयस इसे काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती और जल इसे विघटित नहीं कर सकता। मेरा सिद्धान्त है : 'है भगवन्, यदि तुम मुझे सुख दोगे, तो मैं तुम्हारे नाम का जप करता रहूँगा और यदि तुम मुझे दुःख दोगे, तो भी मैं तुम्हारा ही आह्वान करता रहूँगा' ।”
गुरु अर्जुन का अन्त
चन्दू शाह ने उनके सामने एक कच्चा गो-चर्म रखते हुए कहा कि कल प्रातःकाल उन्हें इसी गो-चर्म में परिवेष्ठित किया जायेगा। जब यह गो-चर्म गुरु के समक्ष लाया गया, तब उन्होंने रावी नदी में स्नान करने की अनुमति माँगी। गुरु ने सदा की भाँति स्नान किया और आत्यन्तिक श्रद्धा के साथ 'जपुजी' का पाठ करते हुए अन्तर्धान हो गये ।
गुरु अर्जुन ने अपने निकट बैठे सिक्खों से कहा- “हरगोविन्द को मेरा उत्तराधिकारी बनाना । उससे कहना कि वह कायरों की तरह विलाप न कर भगवान् का स्तुति गान करे । वह गुरु-गद्दी पर पूर्णतः सशस्त्र हो कर बैठे और उसकी सेना अधिकाधिक शक्तिशाली हो ।”
१६०६ ई० में गुरु अर्जुन का देहान्त हो गया। उन्होंने अमृतसर के परिष्कार का समापन, स्वर्ण मन्दिर का निर्माण तथा 'ग्रन्थ साहिब' का संकलन किया। उन्होंने अपने शिष्यों के समक्ष सेवा, आस्था तथा साहस का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया। वह १५८१ ई० से १६०६ ई. तक अर्थात् चौबीस वर्षों तक गुरु-गद्दी पर आसीन रहे ।
सिक्ख मत अब भक्ति की सीमाओं का अतिक्रमण कर एक सैन्य संघटन में रूपान्तरित हो गया। गुरु अर्जुन की मृत्यु ने सिक्ख समुदाय को एक नयी दिशा प्रदान की। इसने सिक्खों के हृदय में धार्मिक भावावेश की अग्नि प्रज्वलित कर दी। निर्मम उत्पीड़कों द्वारा किये गये उत्पीड़न के अनुरूप ही प्रतिशोध के अभियान का प्रारम्भ किया गया।
गुरु अर्जुन को समर्पित एक गुरुद्वारा लाहौर के किले के सम्मुख आज भी स्थित है।
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FAQ
प्रश्न 1: गुरु अर्जुन देव का जन्म कब हुआ था?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव का जन्म सन् 1563 में हुआ था।
प्रश्न 2: गुरु अर्जुन देव ने गुरु की सीट पर कितना समय बिताया?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव ने सन् 1581 से 1606 तक गुरु के पद पर बैठे रहे।
प्रश्न 3: गुरु अर्जुन देव के माता-पिता और भाइयों के बारे में बताएं।
उत्तर : गुरु अर्जुन देव गुरु राम दास के सबसे छोटे पुत्र थे। उनके एक बड़े भाई प्रिथी चंद और एक छोटे भाई महादेव भी थे।
प्रश्न 4: गुरु अर्जुन देव ने सिख धर्म के प्रति कैसा योगदान दिया?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव ने सिख धर्म की प्रसार-प्रसार की प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने स्वर्ण मन्दिर की नींव रखी, सिख समुदाय को संगठित किया और पवित्र ग्रंथ साहिब का संकलन किया।
प्रश्न 5: गुरु अर्जुन देव ने किस प्रकार की परेशानियों का सामना किया?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव ने शासकों की परेशानी और उत्पीड़न का सामना किया। उनकी प्रतिबद्धता और आस्था ने सिख तत्त्वों को बचाए रखने और सिख समुदाय को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 6: गुरु अर्जुन देव के जीवन में सिखों के लिए क्या महत्व है?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव के जीवन ने सिखों को अपनी निष्ठा, सेवा और सिख संस्कृति की महत्वपूर्णता को समझाया। उनकी शहादत ने सिख इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ बनाया, जिससे सिखों की विशेष आस्था और समर्पण बढ़ा।
प्रश्न 7: स्वर्ण मन्दिर के निर्माण में गुरु अर्जुन देव का क्या योगदान था?
उत्तर 7: सन् 1589 में गुरु अर्जुन देव ने स्वर्ण मन्दिर की नींव रखी थी। उन्होंने चुनौतियों का सामना किया, लेकिन उनके दृढ दृष्टिकोण से यह दिखा दिया कि वे एक महान मन्दिर की कल्पना करते हैं जो बाद में सिख समुदाय ने नष्ट होने के बाद पुनर्निर्माण किया।
प्रश्न 8: गुरु अर्जुन देव का विचार सिख धर्म की वृद्धि पर कैसा प्रभाव डाला?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव ने सिखों की व्यवस्थित प्रशासनिक संरचना बनाई, उनसे अपनी कमाई का एक हिस्सा देने की व्यवस्था की और अपने अनुयायियों को विभिन्न क्षेत्रों में सिख धर्म का प्रसार करने के लिए भेजा।
प्रश्न 9: गुरु अर्जुन देव की शहादत का क्या महत्व है?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव की शहादत ने सिखों को उनके धर्म की रक्षा करने और उसके लिए खड़े होने की प्रेरणा दी। यह सिख धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण उधारण बन गया, जिससे उनकी आस्था और समर्पण और भी गहरे रूप में बढ़ गए।
प्रश्न 10: गुरु अर्जुन देव के नाम पर कौन-सा गुरुद्वारा है?
उत्तर : गुरु अर्जुन देव के समर्पित एक गुरुद्वारा लाहौर किले के पास स्थित है, जिसमें उनकी भक्ति और बलिदान की स्मृति बनी हुई है।
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